Thursday, January 1, 2015

My poet daughter is amazing............

''हमारे सपनों के हिस्से कपास के सफ़ेद फूल ही आए''
विपिन चौधरी का एकल कविता-पाठ
''दुनिया के सारे गुलाब
हमने प्रेमियों को थमा दिए
गुलमोहर
कठफोड़वों को
सफ़ेद फूल
मुर्दों की तसल्ली के लिए रख छोड़े
गुलदाउदी के फूलों ने
हमारी सर्दी का इलाज किया
चीड़ की टहनियों से
कुर्सी मेज़ बना दिए
सूरजमुखियों को इकट्ठा कर
तेल कारख़ाने भेज दिया
कमल
लक्ष्मी के चरणों में चढ़ा दिए
हमारे सपनों के हिस्से कपास के सफ़ेद फूल ही आए
और आँख खुली तो सिर्फ़
फूल झड़ी टहनियाँ!''
यह कविता ‘कपास के फूल’ हिन्दी की सुपरिचित कवयित्री विपिन चौधरी की एक ऐसी कविता है जिससे कविता की ज़मीन और उससे जुड़े तमाम सरोकारों के प्रति उनकी गहरी प्रतिबद्धता का परिचय मिलता है।
विपिन चौधरी अपनी कविताओं का पाठ, हिन्दी की महत्त्वपूर्ण रचनाशीलता को अनौपचारिक मंच देने के उद्देश्य से गठित साहित्यिक संस्था ‘हुत’ की ओर से आयोजित एकल काव्य-पाठ कार्यक्रम के दौरान प्रस्तुत कर रही थीं। ‘हुत’ की तरफ़ से यह आयोजन रविवार, 21 दिसम्बर, 2014 को सायं 4.00 बजे से एनडीएमसी पार्क, अबुल फज़ल रोड, नियर तिलक ब्रीज रेल्वे स्टेशन, मंडी हाउस, नई दिल्ली में किया गया था।
अपने कविता-पाठ में विपिन चौधरी ने---
‘पुरानेपन का मान रखते हुए’, ‘पतंग उड़ाती माँ’, ‘पीछे छूटा हुआ प्रेम’, ‘इंतज़ार’, ‘दुःख के पत्थर होने से पहले’, ‘इंसान अपने क़द जितना प्रेम करता है’, ‘पुराने दिन’, ‘पेड़’, ‘प्रतिसंसार’, ‘गुलाब के फूल’, ‘जल’, ‘कुछ नहीं था तब भी’, ‘जीवन भीतर जीवन’, ‘ज़रूरी चीज़ें’, ‘धरती पर पहले पहल’, ‘दूरियाँ’, ‘मुट्ठी में क़ैद यादें’, ‘सर्दी और याद’, ‘चोर दरवाज़े’, ‘ज़्यादातर मैं सत्तर के दशक में रहा करती हूँ’, ‘कपास के फूल’ सहित लगभग अपनी तीस कविताएँ प्रस्तुत कीं।
दिल्ली की भयानक ठंड के बीच विपिन चौधरी की कविताओं की यह तासीर ही थी कि श्रोता जैसे अलाव के चारों तरफ बैठे रहे और कविताओं की आँच को जीते रहे। ‘हुत’ की गोष्ठी में यह पहली बार था कि श्रोता दिल्ली की ठंड ही नहीं बल्कि दिल्ली की ठंडी बौद्धिकता के भी विरुद्ध गोलबंद नज़र आए ।
हिन्दी में तमाम कवियों के बीच अलग से पहचानी जानी कवयित्री विपिन चौधरी की कविताओं को हिन्दी के महत्त्वपूर्ण युवा कवि आर. चेतन क्रान्ति ने काफ़ी सराहा। वहीं चर्चित युवा कवि अरुणाभ सौरभ ने विचार व्यक्त किया कि विपिन चौधरी की स्मृतियों और यर्थाथ को रचने की कलात्मकता गहरे प्रभावित करती है। चीज़ों की जड़ों तक पहुँचने की दृष्टि इनकी अपनी है जिससे ये जीवन, घर-परिवार, समाज और देश-दुनिया की तमाम विसंगतियों को रचने के साथ-साथ, प्रेम में छल-छद्म को भी रचने में एक नई बानगी पेश करती हैं।
पत्राकार उमेश सिंह ने रेखांकित किया कि विपिन चौधरी की कविताओं में प्रकृति और प्रेम का अद्भुत सामंजस्य है। युवा कथाकार-पत्राकार सुशील सांकृत्यायन ने कहा कि इनकी कविताएँ युवाओं की दुनिया को इस तरह रचती हैं कि वह सहज ही अपनी लगने लगती है। लगता है जैसे कोई हमारी ही बात अपनी कविताओं में कह रहा। आज हिन्दी कविता में एक कवयित्री का ऐसा लेखन कम ही दिखता है। वहीं युवा कवि गुफरान ने उल्लेख किया कि कम-से-कम शब्दों में अपनी बात को मुकम्मल अंजाम देना विपिन चौधरी की कविताओं की एक बड़ी ख़ासियत है। साहित्यिक पत्रिका ‘भोर’ की सहयोगी बबिता उप्रेती ने विपिन चौधरी की कविताओं की व्यापकता को लक्षित करते कहा कि इनकी कविताएँ पितृसत्तात्मक पेंचों को खोलती हैं। स्त्री की संघर्ष-चेतना प्रभावित ही नहीं करती सोचने पर भी मजबूर करती है।
कार्यक्रम का संचालन कर रहे युवा कवि और साहित्यिक पत्रिका ‘रू’ के सम्पादक कुमार वीरेन्द्र ने विचार व्यक्त किया कि विपिन चौधरी एक ऐसी कवयित्री हैं जिनकी कविताओं में सिर्फ़ एक स्त्री की नहीं बल्कि विभिन्न कैरेक्टरों की अभिव्यक्ति है। इनकी कविताओं का अंतरगुंफन कुछ ऐसा है जिसे समझना तो मुश्किल है ही, उसे रचना तो और भी कठिन है लेकिन विपिन चौधरी की कविताओं ने इसे कर दिखाया है, वह भी मूर्त रूप में बेबाक ढंग से। कथ्य और शिल्प को साधते बेचैनी की भाषा की रचना करना इस कवयित्री के कला-पक्ष का एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण है। एक खोए हुए लोक की खोज और एक नए लोक के सृजन में विविन चौधरी की क़लम की भागीदारी दूर से और देर तक दिखने जैसी है।
‘हुत’ के संयोजक और युवा कवि इरेन्द्र बबुअवा ने इस आयोजन पर कहा कि दिसम्बर की इस ठंड में यह एक यादगार आयोजन है और इसको सफल बनाने का श्रेय दिल्ली की युवा रचनाशीलता को है। कार्यक्रम में युवा रचनाकार अतुल प्रसन्न, रंजना बिष्ट, पूर्णिमा सिंह, अश्विनी कुमार आदि की सक्रिय भागीदारी रही।
प्रस्तुति---विद्या सागर पांडेय
ज़्यादातर मैं सत्तर के दशक में रहा करती हूँ
सत्तर की फिल्मों का दिया भरोसा कुछ ऐसा है कि मैं
अपने कंधे पर पड़े अकस्मात
धौल-धप्पे से चौंकती नहीं हूँ मैं
भीड़-भरे बाजार में
बरसों बिछड़ी सहेलियां मिल जाया करती हैं
खोयी मोहब्बत दबे पाँव आ धमकती है
पीले पड़ चुके पुराने प्रेम-पत्रों में
उस दौर की फिल्मों ने अपने पास बैठा कर यही समझाया
भरे-पूरे दिन के बीचोबीच
बदन पर चर्बी की कई तहें ओढे
एक स्त्री मुझे देख कर तेज़ी से करीब आती है
और टूट कर मिलती है
मुड़कर थोडी दूर खड़े अपने शर्मीले पति से कहती है
-सुनो जी मिलो मेरी बचपन की अज़ीज़ सहेली से
और मैं हूँ कि
अपने पुराने दिनों में लौटने की बजाये
बासु दा की फिल्म के उस टुकड़े में गुम हो जाती हूँ
जहाँ दो पुरानी सहेलियां गलबहियां डाले भावुक हो रही हैं
बस स्टॉप पर 623 की बस का इंतज़ार करते वक़्त
अमोल पालेकर तो कभी विजेंदर घटगेनुमा युवक अपने पुराने मॉडल का
लम्ब्रेटा स्कूटर
मेरी तरफ मोड़ते हुए लगा है
फिल्म 'मिली' के भोंदू अमिताभ का
मिली 'कहाँ मिली थी' वाला वाक्या आज भी साथ चलता है
ताज्जुब नहीं कि
डिज़ाइनर साड़ियों के शो रूम में
(विद्या सिन्हा की ट्रेड मार्क) बड़ी-बड़ी फूलों वाली साड़ियाँ तलाशने लगती हूँ
मूँछ-मुंडा श्ब्द पर बरबस ही उत्पल दत्त सामने मुस्तैद हो जाते हैं
भीड़ में सिगरेट फूंकता
दुबला-पतला दाढ़ीधारी आदमी दिनेश ठाकुर का आभास देने लगता है
हर साल सावन का महीना
घुंघरुओं-सी बजती बूंदों की सरगम छेड़ देता है
और मैं 1970 को रोज़ थोडा-थोडा जी लेती हूँ
श्याम बेनेगल की नमकीन काजू भुनी हुई फिल्में
देर रात देखा करती हूँ
मेरी हर ख़ुशी का रास्ता उन्नीस सौ सत्तर से हो कर आता है
अपने हर दुःख की केंचुली को
उस पोस्टर के नीचे छोड़ आती हूँ
जहाँ रोटी कपडा और मकान के पोस्टर में मनोज कुमार मंद-मंद मुस्कुराते
हुए खड़े हैं
और नीचे लहरदार शब्दों में लिखा है
'मैं ना भूलूंगा इन रस्मों इन कसमों को'
गायक, मुकेश!
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