Saturday, September 26, 2015

ईद-उल-अजहा /बकरा-ईद (बकरीद),visit to Tosham Mungipababa

कल बकरीद थी, जानिए क्या है इसके पीछे की कहानी दुनिया में कोई भी कौम ऐसी नहीं है जो कोई एक खास दिन त्यौहार के रूप में न मनाती हो। इन त्योहारों में एक तो धार्मिक आस्था विशेष रूप से देखने को मिलती है दूसरा अन्य सम्प्रदायों व तबकों के लोगों को उसे समझने और जानने का अवसर मिलता है। अगर मुसलमानों के पास ईद है तो हिंदुओं के पास दीपावली है। ईसाइयों की ईद बड़ा दिन अर्थात क्रिसमस है तो सिखों की ईद गुरु पर्व है। इस्लाम में मुख्यत: दो त्योहारों का जिक्र आता है। पहला है ईद-उल-फितर। दूसरा है ईद-उल-जुहा। इसे ईद-उल-अजहा अथवा बकरा-ईद (बकरीद) और बड़ी ईद भी कहा जाता हैं।  ईद-उल-जुहा हज के बाद मनाया जाने वाला त्यौहार है। इस्लाम के 5 फर्ज होते हैं, हज उनमें से आखिरी फर्ज माना जाता है। हर मुसलमान के लिए अपनी सहूलियत के हिसाब से जिंदगी में एक बार हज करना जरूरी है। हज के संपूर्ण होने की खुशी में बकरीद का त्यौहार मनाया जाता है। पर यह बलिदान का त्यौहार भी है। इस्लाम में बलिदान का बहुत अधिक महत्व है। कहा गया है कि अपनी सबसे प्यारी चीज रब की राह में खर्च करो। रब की राह में खर्च करने का अर्थ नेकी और भलाई के कामों से लिया जाता है। कुर्बानी को हर धर्म और शास्त्र में भगवान को पाने का सबसे प्रबल हथियार माना जाता है। हिंदू धर्म में जहां हम कुर्बानी को त्याग से जोड़ कर देखते हैं वहीं मुस्लिम धर्म में कुर्बानी का अर्थ है खुद को खुदा के नाम पर कुर्बान कर देना यानि अपनी सबसे प्यारी चीज का त्याग करना। इसी भावना को उजागर करता है मुस्लिम धर्म का महत्वपूर्ण त्यौहार ईद-उल-जुहा। वैसे बकरीद शब्द का बकरों से कोई रिश्ता नहीं है और न ही यह उर्दू का शब्द है। असल में अरबी में 'बक़र' का अर्थ है बड़ा जानवर जो जिब्ह (कुर्बान) किया जाता है। उसी से बिगड़कर आज भारत, पाकिस्तान व बांग्लादेश में इसे 'बकरीद' कहते हैं। वास्तव में कुर्बानी का असल अर्थ ऐसे बलिदान से है, जो दूसरों के लिए दिया गया हो।  जानवर की कुर्बानी तो सिर्फ एक प्रतीक भर है कि किस तरह हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम (बाइबल में अब्राहम) ने अल्लाह के लिए हर प्रकार की कुर्बानी दी। यहां तक कि उन्होंने अपने सबसे प्यारे बेटे तक की कुर्बानी दे दी लेकिन खुदा ने उन पर रहमत की और बेटा जिंदा रहा। हजरत इब्राहीम चूंकि अल्लाह को बहुत प्यारे थे इसलिए उनको 'खलीलुल्लाह' की पदवी भी दी गई है। कुर्बानी उस जानवर को जिब्ह करने को कहते हैं जिसे 10, 11, 12 या 13 जिलहिज्जा (अर्थात हज का महीना) को खुदा को प्रसन्न करने के लिए दी जाती है।
  ईद वाले रोज ऐसा लगता है कि मानो यह मुसलमानों का ही नहीं, हर भारतीय का पर्व है। आइये एक नज़र ईद-उल-जुहा के इतिहास पर डालें। ईद-उल-जुहा का इतिहास बहुत पुराना है जो हजरत इब्राहीम से जुड़ा है। हजरत इब्राहीम आज से कई हजार साल पहले ईरान के शहर 'उर' में पैदा हुए थे। जिस वातावरण में उन्होंने आंखें खोलीं, उस समाज में कोई भी बुरा काम ऐसा न था जो न हो रहा हो। इब्राहीम ने इसके खिलाफ आवाज उठाई तो सारे कबीले वाले और यहां तक कि परिवार वाले भी उनके दुश्मन हो गए। हजरत इब्राहीम का ज्यादातर जीवन रेगिस्तानों और तपते पहाड़ों में जनसेवा में बीता। संतानहीन होने के कारण उन्होंने एक संतान प्राप्ति के लिए खुदा से गिड़गिड़ाकर प्रार्थना की थी जो सुनी गई और उन्हें चांद सा बेटा हुआ। उन्होंने अपने इस फूल से बेटे का नाम इस्माईल रखा।  जब इस्माईल की उम्र 11 साल से भी कम थी तो एक दिन हजरत इब्राहीम ने एक ख़्वाब देखा, जिसमें उन्हें यह आदेश हुआ कि खुदा की राह में सबसे प्यारी चीज कुर्बानी दो। उन्होंने अपने सबसे प्यारे ऊंट की कुर्बानी दे दी। मगर फिर सपना आया कि अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी दो। उन्होंने अपने सारे जानवरों की कुर्बानी दे दी। मगर तीसरी बार वही सपना आया कि अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी दो। इतना होने पर हजरत इब्राहीम समझ गए कि अल्लाह को उनके बेटे की कुर्बानी चाहिए। वह जरा भी न झिझके और उन्होंने अपनी पत्नी हाजरा से अपने प्यारे लाडले को नहला-धुलाकर कुर्बानी के लिए तैयार करने को कहा। हाजरा ने ऐसा ही किया क्योंकि वह इससे पहले भी एक अग्निपरीक्षा से गुजरी थीं, जब उन्हें हुक्म दिया गया कि वह अपने बच्चे को जलते रेगिस्तान में ले जाएं।  हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम बुढ़ापे में रेगिस्तान में पत्नी और बच्चे को छोड़ आए। बच्चे को प्यास लगी। मां अपने लाडले के लिए पानी तलाशती फिरी, मगर उस बीहड़ रेगिस्तान में पानी तो क्या पेड़ की छाया तक न थी। बच्चा प्यास से तड़पकर मरने लगा। यह देखकर हजरत जिब्रईल ने हुक्म दिया कि फौरन चश्मा अर्था तालाब जारी हो जाए। पानी का फव्वारा हजरत इस्माईल के पांव के पास फूटा और रेगिस्तान में यह करामत हुई। उधर, मां सोच रही थी कि शायद इस्माईल की मौत हो चुकी होगी। मगर ऐसा नहीं था। वह जीवित रहे। अब इस घटना के बाद जब हाजरा को यह पता चला कि अल्लाह के नाम पर उनके प्यारे बेटे का गला उनके पिता द्वारा ही काटा जाएगा, तो हाजरा स्तब्ध हो गईं। मानों वह मां नहीं, कोई पत्थर की मूरत हों।  जब हजरत इब्राहीम अपने प्यारे बेटे इस्माईल को कुर्बानी की जगह ले जा रहे थे तो शैतान (इबलीस) ने उनको बहकाया कि क्यों अपने जिगर के टुकड़े को जिब्ह करने पर तुले हो, मगर वह न भटके। हां, छुरी फेरने से पहले नीचे लेटे हुए बेटे ने पिता की आंखों पर रूमाल बंधवा दिया कि कहीं ममता आड़े न आ जाए और हाथ डगमगा न जाएं। पिता ने छुरी चलाई और आंखों पर से पट्टी उतारी तो हैरान हो गए कि बेटा तो उछलकूद रहा है और उसकी जगह जन्नत से एक दुम्बा भेजा गया और उसकी कुर्बानी हुई। यह देखकर हजरत इब्राहीम की आंखों में आंसू आ गए और उन्होंने खुदा का बहुत शुक्रिया अदा किया। यह खुदा की ओर से इब्राहीम की एक और अग्निपरीक्षा थी। तभी से जिलहिज्जा के महीने में जानवर की कुर्बानी देने की परंपरा चली आ रही है ।SOURCE

बेटी ने कल अपनी सहेली के घर बकरीद का मज़ा लिया .



Tosham Mungipababa















visited Tosham for puja on 10/11/2015
शब्बा खैर !!!

My Daughter’s post on Dashrath maanjhi

2008 में अमित परिहार का 'दशरथ मांझी' 2015 में केतन मेहता का 'मांझी'
दशरत मांझी के नाम और उनकी लगन से पहली बार अमित परिहार की कविता 'दशरथ मांझी' के ज़रिये ही परिचित हुयी थी. अमित परिहार ने इस बेहतरीन कविता को लिखने में काफी समय लिया था, उसी के सुखद परिणाम स्वरुप 2008 में वागर्थ पत्रिका द्वारा आयोजित वागर्थ युवा कविता प्रतियोगिता में 'दशरथ मांझी' कविता को प्रथम पुरस्कार मिला था. बलराम कांवट, ज्ञानप्रकाश चौबे, नताशा सिंह, अलिंद उपाध्याय, अच्युतानंद मिश्र, मिथिलेश राय, पुष्पेन्द्र फाल्गुन और मुझे भी अपनी अपनी कविताओं के लिए पुरस्कृत किया गया था । हम नौ कवियों को एक शेक्सपीयर सरणी के आयोजन में दो दिन के लिए कोलकात्ता बुलाया गया था वहीँ सबसे पहचान हुयी। पिछले दिनों फिल्म मांझी देखते हुए अमित परिहार की कविता दशरथ मांझी दुबारा याद आयी और उसे खोजकर पढ़ा.
अमित परिहार आजकल इलाहबाद कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफसर है और कविता लिखने और प्रकाशित करवाने में पहले की तरह ही लम्बा समय लेते हैं.............
vipin.choudhary


REAL LIFE STORY OF  Dashrath maanjhi

Click HERE to read about real story of Dashrath maanjhi


XOXO

Thursday, September 24, 2015

On Woman's Era, yet again!
Another 'Yay!' moment to share with you readers :) 
My 103rd has been featured on Woman's Era August (Second) 2015. To say I am delighted would be an understatement. I am ecstatic! :)

You can also read the blog post Here.




click to enlarge

xoxo

Wednesday, September 23, 2015

हरियाणा शहीदी दिवस

शहीदी दिवस पर सभी शहीदों को सत सत नमन 





xoxo

Is it Nostelgia feast today!!!!!!!!!!!!!!!! OR anything else

Remembering prissy days of Bhadra  Months I become nostalgic and remembered last year’s laborious project I completed in this month . There is a saying in Haryana  about Bhado that “bhadon /Bhadra main to siri bhi bhaj jaayaa krain  sain” ( the agricultural labours run away and quit farm work for their landlords ……due to harsh conditions to work in the fields in the month of Bhadra )  

This is the rack and  is custom made  by my handyman 
2-Shelf Kitchen Rack with Fabric Dust Cover. 30'"Wx27.75"Dx25.5"H
it was placed  in the  lower shelf   almirah of the room as the renovation in the kitchen was on the way that time 




 One of my prepping project that was completed last year these days was a wood storage rack. It was built with some used lumber "scrounged" from a construction site. It's 30'"Wx27.75"Dx25.5"H
 in size. It was made three feet wide to accommodate tit bits of kitchen  . This was made to fit under the kitchen’s preparation platform    as a place to store some kitchen items   in a place that would be accessible when in need .
This versatile Kitchen and dish cloth  rack in wood scrap with zip opening  is easy to operate . One  shelve  stack bottles juicers, antique pans  ,wooden spatulas, spoons, ladles, and churners   and second shelve stacks dish cloths mesh cloths, muslin cloth etc.    Our dust cover protects stack while a zipper provides easy access to shelves.

Kitchen that was transformed into store house 

Since we will purchase/built a new big house in the near future, I didn’t want to procure any new drawer or almirah or I didn’t want to add doors to my store slab (which was our previous kitchen ..and the space ..from cooking platform  and upper open shelf can be made almirah by adding additional slabs and doors )so in short I wanted to make something a little quicker to hold my growing stash of yarn, thread, floss, macramé wires, beads, fabrics and lace.etc…etc, so I decided to cover a wooden rack with some fabric wadding and plastic sheet to prevent the internal space from dust…in our arid area the fine powdery sand particles are really nuisance especially in summer that they used to penetrate through the foam wadding+ fabric so I have to sandwich a plastic sheet necessarily….

later i covered this rack
Here is how…….  Here, Here..., Here
Click the links above 

xoxo


Sunday, September 6, 2015

My article in Womens Era! (August 2015)


So here is my experienced and tested Mantraas for Housewives in  Women's Era. This takes the tally of my writing in print media to 102! :) 

I am excited and elated on reaching so much on my personal milestone :)

Here it is...  ‘THE PERFECT MENU=PERFECT HOMEMAKERS……Ideal for happy home’ on Women's Era August(first) 2015 issue.
 To read the complete article Click   Here








You can also read it here THE PERFECT MENU=PERFECT HOMEMAKERS……Ideal for happy home.
xoxo


Wednesday, September 2, 2015

संगीत की यह स्वर लहरी

संगीत की यह स्वर लहरी मेरे घर में विश्व संगीत दिवस पर बही थी यानी कि 21 जून 2015 को जब मेरी भांजी ने गिटार बजाया मैंने सितार और मेरे भांजे ने एकतारा बजाया जो हरियाणा के लोकगायकों का लोकवाद्य यंत्र है.

मुझे वो दिन याद आते हैं जब मैं आगरा के नार्मल स्कूल में कक्षा आठवीं में पढ़ती थी, हालांकि मेरी सभी सहेलियों और मेरे पास संगीत का विषय नहीं था परन्तु हम हमारे स्कूल  के संगीत के अध्यापक जो कि काफी वृद्ध थे, से आधी छुट्टी में या जब कभी हम खाली होते और वे बैठे दिखाई पड़ते, हम उनसे  बहुत बातें किया करते थे वे अक्सर  भारतीय शास्त्रीय संगीत के पुनरोद्धारक विष्णु नारायण भातखंडे  के बारे में बातें बताया करते थे वे उनकी डायरी (किताब के रूप में लिखी ) पढ़ते  रहते थे और हमें उनके बारे में रोचक प्रसंग बताते थे. हम अपनी रूची संगीत में जताने की कोशिश करते एक दिन मैंने कहा," मास्टर जी मैं संगीत सीखना चाहती हूँ", मेरी सहेली शारदा ने भी कहा "मास्टर जी मैं भी  संगीत सीखना चाहती हूँ, मास्टर जी ने शारदा से कहा,"तुम संगीत नहीं सीख  सकती।" शारदा ने कहा,"  मास्टर जी मैं क्यों नहीं सीख सकती?" मास्टर जी ने फिर से जवाब दिया कि  नहीं तुम संगीत नहीं सीख सकती। शारदा के तीसरी बार कहने पर कि  मास्टर जी मैं संगीत क्यों नहीं सीख सकती?" मास्टर जी को ताव आ गया वे उबल पड़े," मैंने कह  दिया कि तुम नहीं सीख सकती, बार-बार कहे जा रही हो मुझे संगीत सीखना है!  मुझे संगीत सीखना है! 

यानी कि उस दिन मास्टर जी बहुत नाराज़ हो गए, उस दिन के बाद हम उनके इर्द-गिर्द कभी नहीं गए, उनसे बचने लगे।  
और फिर मैंने ग्यारहवीं कक्षा में संगीत विषय लिया और यह प्रसिद्ध सितार मास्टर रिखी राम की पहाड़गंज, दिल्ली  स्थित दूकान से १९७२ में यह सितार खरीदा, एक बार   १९७३ में हमारी सेविका के हाथों इसका तुम्बा टूट गया था जिसे दोबार उन्हीं की दूकान से ठीक करवाया फिर , २००२ में उन्हीं की दूकान से फिर इसका जीर्णोंद्धार करवाया। अब यह बहुत पुराना हो गया है मुझे एक नया सितार खरीद लेना चाहिए  


यदि मैं भौतिकविद नहीं होता तो संभवतः संगीतकार बनता. मैं अक्सर स्वरलहरियों में सोचता हूँ. मेरे दिवास्वप्न संगीत से अनुप्राणित रहते हैं. मुझे लगता है कि मानव जीवन एक सरगम की भांति है. संगीत मेरे लिए मनोरंजन का सबसे बड़ा माध्यम हैअल्बर्ट आइंस्टीन 

विज्ञान के नए रूप का प्रारम्भ करने वाले सापेक्षता के सिद्धांतकार आइंस्टीन  प्रयोगशालाओं के तनाव से उबरने के लिए वायलिन की शरण में जाते थे. हमारे महामहिम डाक्टर  अब्दुल कलाम भी वीणावादिनी की वीणा की शरण में जाते थे। संगीत, सृजन, सरसता, समन्वय एयर संतुष्टी का कारक और सूचक होता है।  




हरियाणा भारत का पहला ऐसा राज्य है जिसके शहरों और गाँवों का नाम विभिन्न रागों के नाम पर हैं  जैसे कि  नन्द्याम् (नन्द) , सारंगपुर,  बिलावल, बृन्दाबनी, तोड़ी( टोड़ी), आशाबरी, जयश्री, मालकौश, हिंडोला (हिन्दोल), भैरवी, गोपी कल्याण इत्यादि और एक गाँव का नाम जयजयन्ती , और एक गाँव का मालबी भी है.


शब्बा खैर!

Tuesday, September 1, 2015

My daughter's poems



१.

जनपद – कल्याणी आम्रपाली
भंते,
स्मृतियाँ
मुझे अकेला छोड़
अपनी छलकती हुयी गगरियाँ कमर पर उठा
पगडण्डी-पगडण्डी हो लिया करती हैं


स्मृतियों के मुहं मोड़ते ही
अजनबी झुरियां,
झुण्ड बनाकर
मुझसे दोस्ती करने के लिये आगे
बढ़ने लगती हैं


अठखेलियाँ करने को आतुर
रहने लगी हैं
बालों की ये सफ़ेद लटें
उफ्फ
अब और नहीं
भंते और नहीं


मेरा दमकता
नख-शिख
घडीदरघडी दरक रहा है


क्या हर चमकती चीज़
एक दिन इसी गति को जाती हैं  ?
राष्ट्र को बनानेबिगाड़ने वाला
मेरा सौन्दर्य  इतना कातर
क्योंकर  हुआभंते


जिस जिद्दी दुख,
का रास्ता सिर्फ नील थोथे को मालूम हुआ करता था
अब वही दुःख
मेरे  मदमदाते शरीर में
अपना  रास्ता ढूंढने लगा है

मुक्ति की
कोई राह है भंते
सीधी न सही
आड़ी-टेढ़ी ही


वैशाली की नगरवधू जनपद कल्याणी
बौद्ध भिक्षुणी के बाने
भीतर  भी
आसक्ति के कतरों को
अपने से अलग नहीं कर पा रही
इस अबूझ विवशता को क्या कोई नामकरण दिया है तुमने भंते


बिम्बिसार की मौन मरीचिका के आस-पास
एक वक़्त को मेरा प्रेम जरूर
टूटी चूड़ी सा कांच-कांच हो गया था
किन्तु  बुद्धमशरणम् के बाद  भी
अनुरागप्रीतिमुग्धता के अनगिनत कतरे मेरे तलुओं पर रड़क रहे हैं


सौंदर्य क्या इतनी मारक चीज़ है
तथागत
कि  मेरे प्रश्नों पर तुमने यूँ
एकाएक मौन साध
ध्यान की मुद्रा में खुद को स्थिर कर लिया  है
Click here for her rest of the poems

xoxo