Sunday, August 7, 2016

my daughter's poems in haryanvi

My daughter
किसी भी रचनाकार के लिए उसकी देशजता सबसे अहम होती है। अपनी रचनाओं के लिए खाद-पानी वह वहीँ से आजीवन जुटाता है। अपनी देशज बोलियों के ऐसे शब्द जिनका अक्स दूसरी बोलियों में प्रायः नदारद होता है, अपनी कविताओं में ला कर न केवल कविताओं की जमीन को पुख्ता करता है, बल्कि देश-दुनिया को भी एक नए शब्द की आभा से परिचित कराता है। हाल ही में अपने एक साक्षात्कार में कवि केदार नाथ सिंह ने कहा था कि मेरी एक इच्छा है कि मेरा एक कविता संग्रह मेरी देशज भाषा भोजपुरी में आए। लेकिन यह अभी तक संभव नहीं हो सका है। संयोगवश हमारे युवा साथी अपनी देशजता के प्रति सजग हैं। विपिन चौधरी हिंदी कविता में आज एक सुपरिचित नाम है। कविताओं के साथ-साथ विपिन कहानियाँ और अनुवाद के क्षेत्र में भी सक्रिय हैं आज हम आपको विपिन की उन हरियाणवी कविताओं से परिचित करा रहे हैं जो उनकी अपनी बोली-बानी है। जिसमें वे बेझिझक अपने को व्यक्त कर अपनत्व महसूस करती हैं. तो आइए पहली बार पर पढ़ते हैं विपिन चौधरी की कुछ हरियाणवी कविताएँ            

विपिन चौधरी की हरियाणवी कविताएँ  



बाट

कोए आण आला सै 
छोरी आंखया की ओट तै बोली

मुंडेर पर बैठा
मोर कि बाट में नाचया 

दादाजी हुक्के में
चिलम मह चिंगारी की बाँट देख छोह मह आए 

बालक
नै सपने में
नई पतंग की बाट देखयी

बाट बाट मह
तो या दुनिया गोल होई 


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xoxo

Friday, August 5, 2016

तीज


तीज के दिन गाँव में सुबह -सवेरे नहा -धोकर सब लोग रंग-रँगीले कपड़े पहन लेते थे लड़कियां और बहुएं रात को ही अपने-अपने हाथों में मेहँदी रचा लेती थी। गाँव में सुबह तकरीबन सबके घरों में हलवा और खीर बनते थे। हलवा-खीर खाकर सभी लड़कियां और औरतें सावन के गीत गाती  हुई फ लसे में पेड़ों पर टँगे झूलों पर झूलने निकल पड़ती थी।  झूले इतने मोटे -मोटे रस्सों से डाले जाते थे कि टूटने का कोई अंदेशा ही नहीं रहता था झूले के दोनों ओर  रस्सियाँ बाँधी जाती थी जिससे झूलने वाली को लम्बा झुलाने के लिए दोनों तरफ से रस्सियाँ पकड़ कर पींग चढ़ाई जाती थी सब बारी-बरी से झूलते थे अपनी बारी का इन्तजार करती लड़कियां खूब गीत गाती और हंसी- ठिठोली करती थी. शाम को सबके घर सुहाली, गुलगुले पकौड़े और पुड़े इत्यादि बनते थे
 तीजों का एक और रिवाज होता था कोथली  भेजने और आने का चूँकि हमारे गाँव के लोगों ने आर्य- धारण कर रखा था हमारे गाँव के लोग अपनी लड़कियों को कोठली नहीं भेजता थे परन्तु बहुओं के पीहर से कोथलियाँ आया करती थी  कोठली में सुहालियाँ पतासे प्रमुख होते थे इसके साथ ही सुन्दर सी जुले पर लगाने वाली सीधी और बहुओं और उनके बच्चो के कपड़े होते थे। 

जब मैं छोटी थी मेरी दादी इतनी सुहालियाँ बनाती थी कि वे महीनों तक खराएब नहीं होती थी और हम उन्हें महीना भर खूब चाव से खाया करते थे। सरसों का तेल गाँव के कोल्हू से ही बनवाया जाता था।  हमारी हवेली के आस -पास की मुसलमानों के घर थे।  मेरी दादी बताती थी कि हिंदुस्तान-पाकिस्तान बनते समय उन मुस्लिम घरों को हमारे परिवार ने अपने सरंक्षण में यहीं गाँव में रख लिया था।  एक परिवार तो हमारे बड़े दरवाजे के बिलकुल पास ही था उसका नाम सौदागर था वह रुई पिनान का काम करता था। उससे थोड़ा आगे चलकर लीलगरान का घर था वे कपड़ा और सूत रँगने का काम करते थे.उनके थोड़ा आगे चलकर कर-पांच परिवार थे जिनमें से अजमेर के पास कोल्हू था वह सरसों पीड़कर तेल निकालने का काम करता था एक विधवा महिला शबनम थी उसकी पांच बेटियां थी उसकी एक ब्याही हुई लड़कीजमालो अपने ससुराल के परिवार के साथ  पाकिस्तान के हिस्से में चली गई थी. वह कई बार पकिस्तान से अपनी मां से मिलने हमारे गाँव अपने घर आया करतीय गाँव की सभी महिलाएं उसे मिलने और पाकिस्तान के बारे में जानने उसके घर जाया करती थी। 




आज तीज की बात हिंदुस्तान पाकिस्तान पर जाकर खत्म हुई हमारे देश का आजादी के बाद दो हिस्सों में बांटा  जाना सचमुच एक त्रासदी थी।      

xoxo