आज भयंकर जुकाम से पीड़ित थी अनायास ही ऋग्वेद में रोग
संबंधित यानी कि औषध ऋचाएं देखने को ऋग्वेद देखा तो यह प्रार्थनाएं मिली'''''''''
ऋग्वेद में औषधीय वनस्पतियों की रार्थना
मुञ्चन्तु
मा शपथ्यादथो वरुण्यादुत
।
अथो
यमस्य षड्बीशात् सर्वस्माद्देवकिल्बिषात्
॥16॥
(यथा
उपर्युक्त)
(मा
शपथ्यात् मुञ्चन्तु अथो वरुण्यात्
उत अथो यमस्य
षड्बीशात् सर्वस्मात् देवकिल्बिषात् ।)
अर्थ
- औषधियां मुझे शापजनित
रोग से मुक्त
करें, बल्कि वरुण
देवता के शाप
से भी दूर
रखें, यम देवता
की बेड़ियों से
मुक्त रखें, इतना
ही नहीं समस्त
दैवप्रदत्त पापों को मुझसे
दूर रखें ।
मनुष्य
के कष्ट तीन
प्रकार के गिनाए
गए हैं: आधिभौतिक,
आधिदैविक, एवं आघ्यात्मिक
। दूसरे मनुष्यों
अथवा संसार के
अन्य प्राणियों के
कारण जो भौतिक
कष्ट भोगना पड़ता
है उसे आधिभौतिक
कहा जाता है
। देवताओं के
रोष से जो
कष्ट भोगना पड़ता
है उसे आधिदैविक
की संज्ञा दी
गई है ।
अधिकांश कष्टों की अनुभूति
इंद्रियों के माध्यम
से अनुभव में
आती है ।
इनके अतिरिक्त कभी-कभी विशुद्ध
मानसिक कष्ट भी
भोगने पड़ते हैं;
इन्हीं को आघ्यात्मिक
कहा जाता है
। ये कष्ट
वस्तुतः मन के
विकारों के कारण
पैदा होते हैं,
और उनका कोई
स्पष्ट बाह्य कारण नहीं
रहता है ।
उक्त मंत्र में
इन सभी प्रकार
के कष्टों से
मुक्ति की प्रार्थना
की गई है
। शापजनित कष्ट
उसे समझा जा
सकता है जो
दूसरों के द्वारा
कर्मणा अथवा वाचा
किसी को पहुंचाया
जाता है ।
दूसरे के अहित
की भावना भी
कदाचित कष्ट का
कारण बन सकता
है । इन
सभी को शापमूलक
मान सकते हैं
। वरुण को
हाथ में बंधन
(फंदा) लिए हुए
पश्चिम दिशा का
(समुद्र का भी)
अधिष्ठाता देवता माना गया
है । वरुण
देवता के शाप
का ठीक-ठीक
अर्थ क्या है
मैं समझ नहीं
पाया । कदाचित
जलजनित रोगों से तात्पर्य
हो । यम
देवता का शाप
का अर्थ यही
होगा कि उनके
रूप में मुत्यु
हर क्षण मनुष्य
का पीछा करती
है । औषधियां
कष्टों अथवा मृत्यु
के निमित्त बने
रोगों से हमें
दूर रखती हैं
। मनुष्य के
अनुचित कर्मों के फल
को देवताओं द्वारा
दंड-स्वरूप प्रदत्त
पाप कहा गया
होगा ऐसा मेरा
सोचना है ।
अवपतन्तीरवदन्
दिव ओषधयस्परि ।
यं
जीवमश्नवामहै न स
रिष्याति पूरुषः ॥17॥
(यथा
उपर्युक्त)
(दिव
अवपतन्तीः ओषधयः परि अवदन्
यं जीवम् अश्नवामहै
स पूरुषः न
रिष्याति ।)
अर्थ
– द्युलोक से धरती
पर उतरती औषधियां
वचन बोलती हैं
कि जिस जीव
को हम व्याप्त
या आच्छादित कर
लें उस पुरुष
का विनाश नहीं
होता ।
व्याप्त
(वि+आप्त) का
अर्थ यहां प्राप्त
होना लिया जा
सकता है ।
मेरा सोचना है
कि प्राचीन मनीषी
वनस्पतियों के औषधीय
गुण स्वर्ग की
देन मानते होंगे
। धरती पर
होने वाली घटनाएं
देवताओं के नियंत्रण
में होती हैं,
अतः ये औषधियां
भी देवों की
प्राणियों पर अनुकंपा
के परिणाम प्राणियों
को प्राप्त होती
हैं । स्वर्ग
से धरती पर
उतरने वाली औषधियां
जो कहती हैं
उसे वस्तुतः उनके
अधिष्ठाता देवता का कथन
माना जाना चाहिए
। इस कथन
में ये उद्गार
प्रतिबिंबित होते हैं
कि मनुष्य के
नाश का कारण
अंततः रोग हैं
जिन्हें औषधियां दूर कर
देती हैं ।
नीरोग व्यक्ति ही
दीर्घजीवी हो सकता
है और वही
अपने एवं समाज
के लिए फलदायी
कार्य संपन्न करने
में
समर्थ होता
है ।
शब्बा खैर!
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