On New Year the post is my daughter’s latest creation…
THE POEM
ON
Bahadur Shah II
Bahadur Shah Zafar presided over a Mughal empire that barely extended beyond Delhi's Red Fort. The British were the dominant political and military power in 19th-century India. Outside British India, hundreds of kingdoms and principalities, from the large to the small, fragmented the land. The emperor in Delhi was paid some respect by the British and allowed a pension, the authority to collect some taxes, and to maintain a small military force in Delhi, but he posed no threat to any power in India.जिल्लेसुभानी
विपिन चौधरी
तर्क के साथ जीने वाले
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इक्कीसवी सदी के बच्चे को
जब यह कहते हुए एक तस्वीर दिखाई जाती है
देखो, ये हैं शहंशाह बहादुरशाह ज़फर
तो वह संदेह भरी आँखों से
एक बार तस्वीर को देखता है एक बार हमें
उसका यह संदेह देर तक परेशान करने वाला होता है
यकीनन बच्चा अच्छी तरह से जानता है
कि एक राजा की तस्वीर में कुछ और नहीं तो
सर पर मुकुट और राजसिंहासन का सहारा तो होगा ही
उसी बच्चे को लाल किले के संग्रहालय में रखा बहादुरशाह का चोगा दिखाते हुये
कुछ कहते-कहते हम खुद ही रूक जाते हैं
उसकी आँखों के संदेह से दुबारा गुजरने से हमें डर लगता है
मगर जब हम दरियागंज जाने के लिये बहादुरशाह ज़फर मार्ग से गुज़रते है
तब वह बच्चा अचानक से कह उठता है
बहादुशाह ज़फर, वही तस्वीर वाले बुढे राजा
सच को यकीन में बदलने का काम एक सड़क करेगी
ऐसे उदाहरण विरले ही होंगे
उस दिन पहली बार सरकार की पीठ थपथपाने का मन किया
आगे चलकर जब यही बच्चा डार्विन का सूत्र
सरवाईवल आफ दा फिटेस्ट पढ़ेगा
तब खुद ही जान जायेगा कि बीमार इंसान और कमज़ोर घोड़े को
रेस से बाहर खदेड दिया जाता है
और इतिहास का पलड़ा
एक खास वर्ग की तरफ ही झुकता आया है
तब तक वह इस संसार की कई दूसरी चीजों के साथ
सामंजस्य बिठाने की उम्र में आ चुका होगा
किसी आधे दिमाग की सोच भी यह सहज ही जान लेती है कि
एक राजा की याद को
महज़ एक-दो फ्रेम में कैद कर देने का षडयंत्र
छोटा नहीं होता
जबकी एक शायर राजा को याद करते हुये
आने वाली पीढियों की आँखों के सामने से
कई चित्र गुज़र जाने चाहिये थे
जिसमें से किसी में वे मोती मस्जिद के पास की चिमनी पर कुछ सोचते दिखायी देते,
छज्जे की सीढी से उतरते या प्रवेश द्वार से गुज़रते,
मदहोश गुंबद के पास खडे हो दूर क्षितिज में ताकते,
बालकनी के झरोखों से झाँकते जफ़र
या कभी वे जीनत महल के किले की छत पर पतंग उड़ाते नज़र आते
कभी सोचते, लिखते और फिर घुमावदार पलों में खो जाते
जब समय तंग हाथों में चला जाता है
स्वस्थ चीज़ों पर जंग लगनी शुरू हो जाती है
और जब रंगून की कोठरी में बीमार
लाल चोगे में लालबाई का बेटा और एक धीरोचित फकीर
अपना दर्द कागज के पन्नों पर उतारते हैं
तो फरिश्ते के पितरें भी शोक मनाने लगते हैं
उस वक़्त शायद इतिहास को
अपने अंजाम तक पहुँचाने वाले नहीं जानते होंगे
की कल की कमान उनके किसी कारिंदे के हाथों मे नहीं होगी
उसी जीनत महल में आज लौहारों के हथौड़े बिना थके आवाज़ करते हैं
फुलवालों की सैर पर हज़ारों जिंदगियाँ साँस लेती हैं
नाहरवाली हवेली को पाकिस्तान से आकर बसे हुये
दो हिन्दु परिवारों का शोर किले को आबाद करता है
चाँदनी चौक का एक बाशिंदा गर्व से यह बताते हुए
नहीं थकता कि हमारे पूर्वज
राजा साहब को दीपावली के अवसर पर
पूजन सामग्री पहुंचा कर धन्य हो गये
राग पहाडी में मेहंदी हसन जब गा उठते हैं- “बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी”
तो संवेदना की सबसे महीन नस हरकत करने लगती है
ठीक इसी वक्त जिल्लेसुभानी
अपने लम्बे चोगे में बिना किसी आवाज़ के
हमारे करीब से गुज़र जाते है हजारो शुभकामनाएं देते हुए
एक दरवेश की तरह
यहाँ भी देखें....... http://raviwar.com/news/427_bahadur-shah-zafar-poem-vipin-chaudhary.श्त्म्ल
शब्बा खैर!