Monday, January 5, 2015

My daughter's writtings

My daughter's article got published in the leading Hindi News Paper of India " jansatta."

here is the clipping ...........
clip

xoxo

Saturday, January 3, 2015

Motivation and my Jesus Christ's b day post


A Japanese brain researcher has found that there is a zone in our brain that makes us feel motivated to do something. 


"The only way to activate this brain zone is to give it some stimulus...meaning, even if you don't feel like doing something, you need to start doing it. Once you begin doing it, it will be stimulated, and will start to go into self-excitation mode - which will heighten your concentration and motivation."

Jesus Christ's b day  post   


  
I like to think of myself, sitting in the chair below with a plate and fork ready to eat dessert; only a slice of course. (of the  cake!) And the flannel shirt lying on the table  ? Just finished using the newly bought  " Flannel


Christmas at my Sis’s adobe


My sis’s house is full of cotton fabrics, furnishings, and quilts, beddings etc.etc every time I visit here adobe I found a new cotton fabric with beautiful patterns and colour …………it evoke the creativity within me to boost!!!!!!!!! 
What is creativity?  I often ask myself that when I’m designing or sewing or quilting . . .
The answer eludes me.  And it always seems that it’s one step ahead of where I seem to be at the moment!
To me, creativity like beauty lies in the eye of the beholder.   If you think you’re creative, you are.  If you are creating, then you are creative.  If you ponder creativity then, you too, have a creative muse working inside of you.
According to Wikipedia, “Creativity is a phenomenon whereby something new and valuable is created (such as an idea, a joke, an artistic or literary work, a painting or musical composition, a solution, an invention etc.). The ideas and concepts so conceived can then manifest themselves in any number of ways, but most often, they become something we can see, hear, smell, touch, or taste.”
Sometimes, I believe many creative persons are in a “creativity crisis.”  That means fearing to jump into the fabric or technique unknown, to sew without a plan, to design their craft   freely without judgments, to follow ones gut instead of a trend.
I challenge you to take the leap.  Grab a few fabric bundles, a couple of fabric rolls, or pile of cotton fabric assortments from the shop my sis use to buy  — then play.  That’s right, PLAY!  
Feed your creative soul.  Give your muse sustenance. Let go of any doubt or fear or self-criticism and return to the innately creative person you were as a child.  Relax and reclaim the creative spirit you were born with!
OH! Completely  irrelevant words for the post titled with Christmas ………but not for …….. my Sis’s adobe its full of cotton fabric with lots of colour and pattern!

Peek into it in photos




staring 
 I can’t believe how quickly time is going and that I can’t believe baby girl is already x months old…but, I can’t believe how quickly time is going and that baby girl is already 5 months old and she celebrated Jesus crists birth day..

Time is a thief and I feel that now more than ever. I want it to slooooooow down.


Little rehana is 5 months old




 flannel shirt lying on the table  ? Just finished using the newly bought  " Flannel
 "  crochet hook  and  em   thread. Craft and cake -what can be better than that? Merry Christmas dear friends, merry Christmas. 

xxx

Thursday, January 1, 2015

My poet daughter is amazing............

''हमारे सपनों के हिस्से कपास के सफ़ेद फूल ही आए''
विपिन चौधरी का एकल कविता-पाठ
''दुनिया के सारे गुलाब
हमने प्रेमियों को थमा दिए
गुलमोहर
कठफोड़वों को
सफ़ेद फूल
मुर्दों की तसल्ली के लिए रख छोड़े
गुलदाउदी के फूलों ने
हमारी सर्दी का इलाज किया
चीड़ की टहनियों से
कुर्सी मेज़ बना दिए
सूरजमुखियों को इकट्ठा कर
तेल कारख़ाने भेज दिया
कमल
लक्ष्मी के चरणों में चढ़ा दिए
हमारे सपनों के हिस्से कपास के सफ़ेद फूल ही आए
और आँख खुली तो सिर्फ़
फूल झड़ी टहनियाँ!''
यह कविता ‘कपास के फूल’ हिन्दी की सुपरिचित कवयित्री विपिन चौधरी की एक ऐसी कविता है जिससे कविता की ज़मीन और उससे जुड़े तमाम सरोकारों के प्रति उनकी गहरी प्रतिबद्धता का परिचय मिलता है।
विपिन चौधरी अपनी कविताओं का पाठ, हिन्दी की महत्त्वपूर्ण रचनाशीलता को अनौपचारिक मंच देने के उद्देश्य से गठित साहित्यिक संस्था ‘हुत’ की ओर से आयोजित एकल काव्य-पाठ कार्यक्रम के दौरान प्रस्तुत कर रही थीं। ‘हुत’ की तरफ़ से यह आयोजन रविवार, 21 दिसम्बर, 2014 को सायं 4.00 बजे से एनडीएमसी पार्क, अबुल फज़ल रोड, नियर तिलक ब्रीज रेल्वे स्टेशन, मंडी हाउस, नई दिल्ली में किया गया था।
अपने कविता-पाठ में विपिन चौधरी ने---
‘पुरानेपन का मान रखते हुए’, ‘पतंग उड़ाती माँ’, ‘पीछे छूटा हुआ प्रेम’, ‘इंतज़ार’, ‘दुःख के पत्थर होने से पहले’, ‘इंसान अपने क़द जितना प्रेम करता है’, ‘पुराने दिन’, ‘पेड़’, ‘प्रतिसंसार’, ‘गुलाब के फूल’, ‘जल’, ‘कुछ नहीं था तब भी’, ‘जीवन भीतर जीवन’, ‘ज़रूरी चीज़ें’, ‘धरती पर पहले पहल’, ‘दूरियाँ’, ‘मुट्ठी में क़ैद यादें’, ‘सर्दी और याद’, ‘चोर दरवाज़े’, ‘ज़्यादातर मैं सत्तर के दशक में रहा करती हूँ’, ‘कपास के फूल’ सहित लगभग अपनी तीस कविताएँ प्रस्तुत कीं।
दिल्ली की भयानक ठंड के बीच विपिन चौधरी की कविताओं की यह तासीर ही थी कि श्रोता जैसे अलाव के चारों तरफ बैठे रहे और कविताओं की आँच को जीते रहे। ‘हुत’ की गोष्ठी में यह पहली बार था कि श्रोता दिल्ली की ठंड ही नहीं बल्कि दिल्ली की ठंडी बौद्धिकता के भी विरुद्ध गोलबंद नज़र आए ।
हिन्दी में तमाम कवियों के बीच अलग से पहचानी जानी कवयित्री विपिन चौधरी की कविताओं को हिन्दी के महत्त्वपूर्ण युवा कवि आर. चेतन क्रान्ति ने काफ़ी सराहा। वहीं चर्चित युवा कवि अरुणाभ सौरभ ने विचार व्यक्त किया कि विपिन चौधरी की स्मृतियों और यर्थाथ को रचने की कलात्मकता गहरे प्रभावित करती है। चीज़ों की जड़ों तक पहुँचने की दृष्टि इनकी अपनी है जिससे ये जीवन, घर-परिवार, समाज और देश-दुनिया की तमाम विसंगतियों को रचने के साथ-साथ, प्रेम में छल-छद्म को भी रचने में एक नई बानगी पेश करती हैं।
पत्राकार उमेश सिंह ने रेखांकित किया कि विपिन चौधरी की कविताओं में प्रकृति और प्रेम का अद्भुत सामंजस्य है। युवा कथाकार-पत्राकार सुशील सांकृत्यायन ने कहा कि इनकी कविताएँ युवाओं की दुनिया को इस तरह रचती हैं कि वह सहज ही अपनी लगने लगती है। लगता है जैसे कोई हमारी ही बात अपनी कविताओं में कह रहा। आज हिन्दी कविता में एक कवयित्री का ऐसा लेखन कम ही दिखता है। वहीं युवा कवि गुफरान ने उल्लेख किया कि कम-से-कम शब्दों में अपनी बात को मुकम्मल अंजाम देना विपिन चौधरी की कविताओं की एक बड़ी ख़ासियत है। साहित्यिक पत्रिका ‘भोर’ की सहयोगी बबिता उप्रेती ने विपिन चौधरी की कविताओं की व्यापकता को लक्षित करते कहा कि इनकी कविताएँ पितृसत्तात्मक पेंचों को खोलती हैं। स्त्री की संघर्ष-चेतना प्रभावित ही नहीं करती सोचने पर भी मजबूर करती है।
कार्यक्रम का संचालन कर रहे युवा कवि और साहित्यिक पत्रिका ‘रू’ के सम्पादक कुमार वीरेन्द्र ने विचार व्यक्त किया कि विपिन चौधरी एक ऐसी कवयित्री हैं जिनकी कविताओं में सिर्फ़ एक स्त्री की नहीं बल्कि विभिन्न कैरेक्टरों की अभिव्यक्ति है। इनकी कविताओं का अंतरगुंफन कुछ ऐसा है जिसे समझना तो मुश्किल है ही, उसे रचना तो और भी कठिन है लेकिन विपिन चौधरी की कविताओं ने इसे कर दिखाया है, वह भी मूर्त रूप में बेबाक ढंग से। कथ्य और शिल्प को साधते बेचैनी की भाषा की रचना करना इस कवयित्री के कला-पक्ष का एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण है। एक खोए हुए लोक की खोज और एक नए लोक के सृजन में विविन चौधरी की क़लम की भागीदारी दूर से और देर तक दिखने जैसी है।
‘हुत’ के संयोजक और युवा कवि इरेन्द्र बबुअवा ने इस आयोजन पर कहा कि दिसम्बर की इस ठंड में यह एक यादगार आयोजन है और इसको सफल बनाने का श्रेय दिल्ली की युवा रचनाशीलता को है। कार्यक्रम में युवा रचनाकार अतुल प्रसन्न, रंजना बिष्ट, पूर्णिमा सिंह, अश्विनी कुमार आदि की सक्रिय भागीदारी रही।
प्रस्तुति---विद्या सागर पांडेय
ज़्यादातर मैं सत्तर के दशक में रहा करती हूँ
सत्तर की फिल्मों का दिया भरोसा कुछ ऐसा है कि मैं
अपने कंधे पर पड़े अकस्मात
धौल-धप्पे से चौंकती नहीं हूँ मैं
भीड़-भरे बाजार में
बरसों बिछड़ी सहेलियां मिल जाया करती हैं
खोयी मोहब्बत दबे पाँव आ धमकती है
पीले पड़ चुके पुराने प्रेम-पत्रों में
उस दौर की फिल्मों ने अपने पास बैठा कर यही समझाया
भरे-पूरे दिन के बीचोबीच
बदन पर चर्बी की कई तहें ओढे
एक स्त्री मुझे देख कर तेज़ी से करीब आती है
और टूट कर मिलती है
मुड़कर थोडी दूर खड़े अपने शर्मीले पति से कहती है
-सुनो जी मिलो मेरी बचपन की अज़ीज़ सहेली से
और मैं हूँ कि
अपने पुराने दिनों में लौटने की बजाये
बासु दा की फिल्म के उस टुकड़े में गुम हो जाती हूँ
जहाँ दो पुरानी सहेलियां गलबहियां डाले भावुक हो रही हैं
बस स्टॉप पर 623 की बस का इंतज़ार करते वक़्त
अमोल पालेकर तो कभी विजेंदर घटगेनुमा युवक अपने पुराने मॉडल का
लम्ब्रेटा स्कूटर
मेरी तरफ मोड़ते हुए लगा है
फिल्म 'मिली' के भोंदू अमिताभ का
मिली 'कहाँ मिली थी' वाला वाक्या आज भी साथ चलता है
ताज्जुब नहीं कि
डिज़ाइनर साड़ियों के शो रूम में
(विद्या सिन्हा की ट्रेड मार्क) बड़ी-बड़ी फूलों वाली साड़ियाँ तलाशने लगती हूँ
मूँछ-मुंडा श्ब्द पर बरबस ही उत्पल दत्त सामने मुस्तैद हो जाते हैं
भीड़ में सिगरेट फूंकता
दुबला-पतला दाढ़ीधारी आदमी दिनेश ठाकुर का आभास देने लगता है
हर साल सावन का महीना
घुंघरुओं-सी बजती बूंदों की सरगम छेड़ देता है
और मैं 1970 को रोज़ थोडा-थोडा जी लेती हूँ
श्याम बेनेगल की नमकीन काजू भुनी हुई फिल्में
देर रात देखा करती हूँ
मेरी हर ख़ुशी का रास्ता उन्नीस सौ सत्तर से हो कर आता है
अपने हर दुःख की केंचुली को
उस पोस्टर के नीचे छोड़ आती हूँ
जहाँ रोटी कपडा और मकान के पोस्टर में मनोज कुमार मंद-मंद मुस्कुराते
हुए खड़े हैं
और नीचे लहरदार शब्दों में लिखा है
'मैं ना भूलूंगा इन रस्मों इन कसमों को'
गायक, मुकेश!
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My father's suggestions......

 Do we need to have a teacher to guide  ?
I can definitely see how a guru or teacher would be very valuable for many people, at least for part of the journey, but I also think there are other ways to go about it.  One of the things I like about Hindu way of life  is that you do not need an intermediary between yourself and God. Because the divine is within you, you are always capable of accessing it directly.

On the other hand, a guide can be enormously helpful . My father was/is my real Guru.
Let me say something........that previously I was  used to think, is it really true that everything is written somewhere? Many times it happens with me that whenever I achieve something people used to say, “You are lucky” with one sentence they completely ignore all my hard work, it really hurts, but I also used to think what if I was not in the right place at the right time. So maybe they are not completely wrong. When I got failed to achieve something and negative thoughts like “Why it always happens with me?” came to mind, my father calms down me by reciting the famous  Shloka from  Bhagavad_Gita :
Meaning – Your right is to work only,
But never to its fruits;
Let not the fruits of action be thy motive,
Nor let thy attachment be to inaction.

Honestly, I never understand the real meaning of this  Shloka. I used to think, fruits are the motivation for any action how can a person doesn’t think about it. But after my father’s guidance I came to know what exactly it means, a person can get real satisfaction and pleasure only when he will do the work without thinking about results. Results make us conscious or we can say it makes us fearful. But it’s true nobody has control over the results, then who has control over it.. Fate/destiny??
  Loard Krishna said in  _Gita that it is true that Fate exists and person get results according to his Fate, but we misunderstood the meaning of the same. We decide our fate by choosing right or wrong way. It is beautifully shown in below video part of  Ramanand_Sagar ‘s Shiri  Krishna.


xoxo