l heart her poses |
she changes her poses in every second |
On my lap in front of computer |
She reacts like her father when he was a baby |
Rehan's pics of Sept 26,2014 ,8:10AM |
Rehana my grand daughter is very calm baby I remember my
own kids Rehan’s father and her aunt Vipin
they cry a lot. Ever since they've been in the world. For the first ten months,usually the firstborn basically cried. From week 6 to week 11 also due to severe colic,
which did not stop later: only for a moment I stopped singing, reading,
strumming the guitar, dancing, showing all the animals glued to the walls… his
form had already started growl in crying. I learned how to use my left hand very well,
because it kept staring at me, I remember how I used to cook lunch: it was
chopped on the counter in the shell, I was chopping vegetables on the board and
rocking the shell with my foot so that the toys were on it I was moving here
and there, and that made me miss at least enough to put it all on the stove.
सूफी परंपरा में प्रेम ही सर्वोत्कृष्ट साधना है। इसमें भी वे संयोग के
आनंद की जगह विरह की तड़प को महत्त्व देते हैं। सूफी सन्तों का मानना है कि
विरह की अग्नि ही ह्रदय की सारी कालिमा को पिघला कर बाहर निकाल देती है। ऐसा होने
के बाद ह्रदय में हमेशा से मौजूद खुदा के दीदार होने लगते हैं।
सूफी खुदा को
सातवें आसमान पर नहीं कण -कण में व्यापत मानते हैं, कुछ भी तो ऐसा नहीं है, जिससे खुदा का नूर न चमकता हो। बुल्ले शाह को गुरु ने यही उपदेश तो दिया
है। .........
रब तैतो
बंदेआ दूर नईं ऊं, पर मिलन दा ए दस्तूर नईं ऊं
जद तक न
खुदी मिटाएंगा,
तद तक न रब नू पाएंगा
बुल्लेआ रब दा
तू की पावना ए
एददरों पुट्टनां
तै एददर लावना ए.
आध्यात्मिक साधना का सार है यह पद्द्य, जो बुल्ले शाह को गुरु ने धान रोपते-रोपते कहा था। बुल्लेशाह ने इसी को, संभवतया अपना आदर्श मानकर अपनी रचनाओं में बांधा।
आध्यात्मिक साधना का सार है यह पद्द्य, जो बुल्ले शाह को गुरु ने धान रोपते-रोपते कहा था। बुल्लेशाह ने इसी को, संभवतया अपना आदर्श मानकर अपनी रचनाओं में बांधा।
संत -परंपरा के अन्य महापुरुषों की तरह
बुल्लेशाह भी बाहरी आडंबर को पूरी तरह से नकारते हैं। उनके अनुसार,यदि बाह्य
साधनाएं अपने परम उद्देश्य-सत्य की अनुभूति से भटककर मात्र रीति -रिवाज़ और
क्रमकांड तक ही सिमित हो जाती हैं, तो वह बेकार
हैं। इसी तरह उन्होंने चमत्कारों को भी, जिनकी और
धार्मिक लोगों का मन आसानी से प्रवाहित होता है स्वीकार नहीं करते, क्योंकि वे मानते हैं कि ये सिद्धियां भौतिक पदार्थ के संदर्भ में ही
होती हैं,
उनका स्वरूप बोध से कोई लेना-देना नहीं है।
xoxo
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