‘क्रोशिए’
या ‘लेस’ का काम वास्तव में यूरोपीय है जहाँ इसका प्रारंभ १५ वीं सदी में हुआ।
वेनिस ‘लेस’ बनाने की कला में अग्रणी था। वैसे बाद में फ्रांस और आयरलैंड में भी
इस कला की काफी प्रगति हुई। ‘ब्रसेल्स’ १६वीं सदी के अंत से बॉबिन से बनी लेसों के
लिये विख्यात था। रूस में भी इसका विकास १६वीं सदी से शुरू हुआ।
भारत
में यह कला यूरोपीय मिशनरियों द्वारा शुरू हुई। सर्वप्रथम दक्षिण भारत में क्विलन
में इसे डच और पुर्तगालियों ने प्रारंभ कराया तथा दक्षिण तिरु वांकुर में यह काम
श्रीमती माल्ट द्वारा १८१८ ई. में शुरू कराया गया और वहाँसे यह तिनेवेली और मduराई
तक फैल गया। इसके अलावा आं्ध्रा में हैदराबाद, पालकोल्लु और नरसापुर; उत्तर प्रदेश
में मिर्जापुर तथा दिल्ली में भी इसका निर्माण बड़े पैमाने पर होता रहा है। उत्तर
भारत में आज से लगभग २० वर्ष तक प्राय: सभी घरों में लड़कियाँ क्रोशिए का काम करती
थीं। राजस्थान और गुजरात में वल्लभ संप्रदाय के अनुयायी परिवार मंदिरों में सजाने
के लिये कृष्णलीला की दीर्घाकार पिछवाइयाँ भी क्रोशिए से बनाते थे।
मुझे बचपन से क्रोशिये की चीजें बहुत अच्छी लगती थी. मेरी मम्मी
के पास क्रोशिये की कई सारी लेस थी जो उन्होंने पेटीकोट के बार्डर पर लगाने के लिए
बनाई थी. मम्मी ने पेटीकोट पुराना होने पर उन्हें उतार कर रख लिया था..फिर बाद में रिवाज न होने पर उन्हें
वापिस नये पेतिकोतों पर नही लगाया. एअफ़ेद डीएमसी धागे से बनी और रंग बिरंगी किनारों से सजी वह लेस मुझे बहुत अच्छी लगती थी जब मैंने होश सम्भाला तब तक मम्मी उन्हें बनाना भूल
गई थी उन्होंने अपनी सहेलियों के साथ बैठ कर यह कारीगरी की थी. मुझे वह बेसिक स्टिच
चैन, स्लिप स्टिच और ट्रेबल स्टिचही सिखा पाई थी. मैं उन लेसों को उधेड़-उधेड़ कर देखती और बनाने की कोशिश करती पर कामयाब नहीं हुई. मैं सिर्फ
चुन्नियों पर किनारे ही बना पाती थी और अपनी समझ से थाल-परोस मेजपोश सिर्फ उन्हीं स्टिचेस से जो मुझे आती थी. फिर जब मैंने दसवीं कर ग्यारहवीं
मैं प्रवेश लिया तब मुझे क्रोशिये की कुछ किताबें दिखाई दी और सरिता, गृह-शोभा में
"एब्रिवेशंस" के साथ क्रोशिये से बुनी चीजें. बस फिर क्या था मैंने क्रोशिये की टर्म सीखी और कई अलग-अलग स्टिचेस और साथ में क्रोशिये से शाल स्वेटर, कम्बल, मेजपोश
बनाना और उन्हें लिख कर सरिता, गृह-शोभा में छपवाना ताकि प्रबुद्ध पाठक भी मेरे इस
हुनर का लाभ ले सकें.
एक दिन मुझे लगा कि यह स्टिचेस की "एब्रिवेशंस" यदि मेरी तरह किसी को
पढ़नी न आती हों तब और यदि कोई यूनिवर्सिटी,
लाईब्रेरी न गया हो तब ....और मैंने अपनी क्रोशिये से बनी शाल की विभिन्न स्टिचेस को चिन्हों द्वारा चिन्हित कर कागज़ पर उकेर दिया और उसे सरिता में
छपने भेज दिया. विभीन रंगों की ऊन से क्रोशिये की टुकड़ियों से बनी शाल को कोई भी चिन्हों को देखा बना सकता था ...चिन्ह
पढने की कोई जरुरत नहीं थी. ऊन की क्रोशिये से बुनी वह शाल रंग-बिरंगी शाल के नाम से
सरिता के सितम्बर १९८७ में पेज़ १२ पर छपी थी.
इंटरनेशनल चिन्ह
क्रोशिये के इंटरनेशनल चिन्ह जापान में १९६० के आसपास प्रचलन में आये थे बाक़ी दुनिया में यह बाद में फैले.
इन चिन्हों की सहायता से आप बड़ी आसानी
से क्रोशिये के जटिल डिजाईन भी बना सकती हैं.
यहाँ पर क्रोशिये से एक अन्नानास को गोल किनारी में बांधा गया है. इस तरह के कई सारे फूल बना कर आप टेबल मैट के रूप में
इस्तेमाल कर सकती हैं अथवा ढेरों फूल बना कर उन्हें जोड़ कर मेजपोश, बैड कवर, अथवा बैग
भी बना सकती हैं.
संकेत चिन्ह:
डायग्राम 1 में
बाहर की तरफ लिखे अंक पंक्तियाँ बता रहे हैं . डायग्राम 1में
१३ पंक्तियाँ हैं अंदर की तरफ लिखे अंक चेनें बता रहे हैं यानी कि
जहां ५ लिखा है वहां ५ चेन बनाएं ६ और १२ की जगह उतनी ही चेने बनाएं
१४ और १५ पंक्तियाँ बाहर की लेस बनाती हैं. यानी
की पुरे फूल में १५ पंक्तियाँ हैं
क्रोशिये से बना अनानास का फूल एक मोहक डिजाईन
है. जरुर बनाईये. और प्रशंसा पाइये
xoxo
No comments:
Post a Comment