मेरा कातने का शौक,
मुझे कातना बहुत अच्छा लगता है, चाहे वर्षों के अंतराल मैं ही सही पर मेरा कातना जारी रहता है। मैंने १९६६ मैं अपने गाँव में कातना सीखा था। हमारी गाँव की हवेली में तीन परीवार रहते थे, मेरे दादाजी के बड़े भाई की बेटी, मेरी बुआ मुझसे कुछ दो वर्ष बड़ी थी और वह मेरी अच्छी सहेली भी थी, हम साथ बैठ कर रातों को कातते थे। मेरे पिता आसाम पोस्टेड थे और हमें अपने गाँव रहना पड़ा था. दिन में मैं स्कूल जाती थी और मेरी सहेली बुआ खेत में ...कभी- कभी ज़ब मेरी छुट्टी होती तब हम रात भर कातते थे .....
हमारे राष्ट्र पिता महात्मा गांधी हमेशा सूत कातने के हिमायती रहे हैं॥
अब हरियाणा के गांवों में सूत कातना जैसे बंद सा हो गया है, आजकल औरतें सूत कातना अपनी तौहीन समझती हैं..एक समय था ज़ब लड़कियों को दहेज में चरखा और पीढा दिया जाता था।
मैंने ज़ब-ज़ब शहर में काता
ज़ब मैं 1975 में बी एस सी के पहले वर्ष में थी तब मैंने बहुत कताई की थी। हमारे गाँव की तरह जैसे की रजाई हर दो वर्ष में भरवाई जाती थी और तीसरे वर्ष उसे कात लिया जाता था ज़ब तक उसकी रुई नर्म बनी रहती थी....मैंने भी अपनी रजाई और गद्दे की रुई को कात लिया जो कि लगभग ६ किलो रुई जरुर रही होगी और फ़िर उस सूत की मैंने १९७७ में दरी बनाई। मैं कोलेज से आकर एक घंटा कातने जरुर बैठती थी इससे मेरा कन्सन्ट्रेशन भी बढ़ता था और सब थकावट दूर होजाती थी आंनंद की अनुभूति अलग से होती थी॥
दरी बनाने की और फ़िर से कातने का दौर आगे कभी...
शब्बा खैर!
मुझे कातना बहुत अच्छा लगता है, चाहे वर्षों के अंतराल मैं ही सही पर मेरा कातना जारी रहता है। मैंने १९६६ मैं अपने गाँव में कातना सीखा था। हमारी गाँव की हवेली में तीन परीवार रहते थे, मेरे दादाजी के बड़े भाई की बेटी, मेरी बुआ मुझसे कुछ दो वर्ष बड़ी थी और वह मेरी अच्छी सहेली भी थी, हम साथ बैठ कर रातों को कातते थे। मेरे पिता आसाम पोस्टेड थे और हमें अपने गाँव रहना पड़ा था. दिन में मैं स्कूल जाती थी और मेरी सहेली बुआ खेत में ...कभी- कभी ज़ब मेरी छुट्टी होती तब हम रात भर कातते थे .....
"सरोतिया " और "धूपिया"
रात भर कातने को सरोतिया कहा जाता है। कई सारी औरतें रात भर दिए की रौशनी में बैठ कर कातती हैं कातते समय गीत गाती जाती हैं। फ़िर हलवा बनाया और खाया जाता है। सरोतिये में कई बार शर्त लगाई जाती की पाव भर सूत कौन पहले कातेगा अथवा सुबह चार बजे तक कौन सबसे अधिक कातेगा.
रात भर कातने को सरोतिया कहा जाता है। कई सारी औरतें रात भर दिए की रौशनी में बैठ कर कातती हैं कातते समय गीत गाती जाती हैं। फ़िर हलवा बनाया और खाया जाता है। सरोतिये में कई बार शर्त लगाई जाती की पाव भर सूत कौन पहले कातेगा अथवा सुबह चार बजे तक कौन सबसे अधिक कातेगा.
इसी तरह जब खेत खलिहान के काम निबट जाते थे तो गाँव की महिलाएं दिन में ख़ास कर सर्दियों में धुप में इकट्ठी हो कर कर कातती थी जिसे धूपिया
हमारे राष्ट्र पिता महात्मा गांधी हमेशा सूत कातने के हिमायती रहे हैं॥
अब हरियाणा के गांवों में सूत कातना जैसे बंद सा हो गया है, आजकल औरतें सूत कातना अपनी तौहीन समझती हैं..एक समय था ज़ब लड़कियों को दहेज में चरखा और पीढा दिया जाता था।
मैंने ज़ब-ज़ब शहर में काता
ज़ब मैं 1975 में बी एस सी के पहले वर्ष में थी तब मैंने बहुत कताई की थी। हमारे गाँव की तरह जैसे की रजाई हर दो वर्ष में भरवाई जाती थी और तीसरे वर्ष उसे कात लिया जाता था ज़ब तक उसकी रुई नर्म बनी रहती थी....मैंने भी अपनी रजाई और गद्दे की रुई को कात लिया जो कि लगभग ६ किलो रुई जरुर रही होगी और फ़िर उस सूत की मैंने १९७७ में दरी बनाई। मैं कोलेज से आकर एक घंटा कातने जरुर बैठती थी इससे मेरा कन्सन्ट्रेशन भी बढ़ता था और सब थकावट दूर होजाती थी आंनंद की अनुभूति अलग से होती थी॥
दरी बनाने की और फ़िर से कातने का दौर आगे कभी...
शब्बा खैर!
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