Have nothing in your house that you do not know to be useful, or believe to be beautiful. - William Morris
Saturday, October 29, 2011
Crochet three-dimensional ............... harden and fit .... I do so !!!!
I'm melted! This year I decided not to make good resolutions on New Year's Eve .. because every year is the same story: I promise to be a better person but then I'm still the same! So I started this new year with an objective analysis of myself .. and I have concluded that this year I will do what I like and like! Just before Diwali I thought about buying some cotton twigs, which at that time are usually ready to pic at agri. farms around our HISAR CITY ... and it occurred to me that I could spin it! I did some research and I knew this plant better, discovering that there are several varieties, including some (not very common) in which the cotton wool grows naturally brown, beige or green. These varieties are very old, but their production at the industrial level has not aroused much interest because the fibers are particularly short and therefore it is extremely difficult to spin them. I then took my cotton twigs and started to open this cotton wool, which contains the seeds of the plant, just like a fruit. In each swab I found about 8 seeds and the feeling I felt every time was indescribable: I fully understood the meaning of the word KAPAAS KE DODE! A myriad of short fibers that are rolled up and twist around a small seed to protect it and allow it to be transported by the wind without danger, to give life to a new plant .. made me understand how wonderful is the nature, which thinks every detail to protect his creatures!]]
I also found that, given the extremely short dimensions of the cotton fibers (on average about 2cm), you need to spin it with a special tool, the TAHKLI, a very small and light metal spindle, which is used by placing it on a surface and turning it swirling, like a top! Much better known than TAHKLI IS THE CHARKHA, A SPINNERUM INVENTED BY MAHATAMA GANDHI TO SPIN COTTON. Gandhi used cotton spinning and Charkha as symbols of the non-violent struggle for Indian independence. With the Charkha he hoped that the Indians could become self-sufficient and free from the English dominion, producing their own clothes and not buying the English fabrics.
The things to say are too many .. in a few days I have stored so much information and experiences that to write them all here would be an endless post! The important thing is that I LOVE my CHARKHA, I love it when twirling in my fingers and I love the noise that the thread does while it is forming .. I think soon my CHARKHA will have a name! Preferably Indian .. Raul? Who knows ... we'll see :) I know, I'm crazy, but I always give a name to the objects when I tie myself to them in this way! In addition, during the Diwali holidays at our nanu’s village I talked to my grandmother(maternal) about the production and spinning of cotton, which when she was a child was performed at home, and I found out that my great-grandmother had given her CHARKHA which she got from her mother something that you consider of little value because it is more than 90 years or something!!! Given my enthusiasm to that wonderful charkha could not help but place it on the taand ("I had to preserve it till my death!").
Now I'm thinking of making some kukdis (raw cotton alongated balls)with cotton punnis (cotton swags), but I have to organize myself well and find a frame or use my charpaai .. ok, enough for today! I do not want to go further: this post should have just mentioned the new turn that is taking my life, but as usual I become too verbose when the topic excites me! To reconnect to the incipit, therefore .. for this year I decided to do everything I like and I like ... and I think I started well!
Happy Birth Day Gandhi ji in Heaven!
Friday, October 28, 2011
Our Diwali Pics Slideshow Slideshow
Our Diwali Pics Slideshow Slideshow: TripAdvisor™ TripWow ★ Our Diwali Pics Slideshow Slideshow ★ to Hisār (near Hissar). Stunning free travel slideshows on TripAdvisor
Monday, October 24, 2011
Wreath (रैथ)
घास की रैथ
मैंने कुछ दिन पहले मैंने अपने सामने के दरवाजे पर टांगने के लिए एक रैथ बनाई. रैथ का चलन 16 वीं शताब्दी में मार्टिन लूथर के सुधारवाद के समय जर्मनी में हुआ जब गाड़ी के पहिये के साथ बच्चों को क्रिश्मिस के बारे में समझाया जाता था. रैथ एक गोल लच्छा होता है जिसे विभिन्न तरीकों से सजाया जाता है और इसे सामने के दरवाजे को सजाने के लिए टांगा जाता है.
मैंने इसे कैसे बनाया:
कुछ दिन पहले हमारे सामने के पार्क में घास की कटाई हुई थी. और वह सूखने के बाद ढेरों इधर-उधर बिखरी पड़ी थी. एक दिन सुबह पार्क के ट्रैक पर सैर करते वक्त मेरी नजर सुखी घास के ढेर पर अटक गई और मैंने इसका कुछ उपयोग करने की सोची और मैं जितनी एक बार में उठा सकती थी उठाई और घर ले आई कुछ 4-5 दिन बाद शाम को सामने के बरामदे में बैठ मैंने अपनी मम्मी की सहायता से घास का घेरा बनाया. इसके लिए मैंने फिर से बची-खुची बेकार चीजों का इस्तेमाल किया. प्रेशर कुकर की गैस्कैट पर बेकार पानी की ट्यूब लपेट कर उस पर घास लगाना शुरू किया और उसे गेहूँ की बोरी उधेङ प्राप्त की गई रस्सी लपेटी इस प्रकार घास का एक गोल चक्कर बनाया और उस पर सजावट की इसे बनाने का पूरा तारीका में अगली पोस्ट में विस्तार से पोस्ट करूँगी.
शब्बा खैर!
Friday, October 21, 2011
Chrysanthemum (Guldaudi)
I took the photos of Chrysanthemum(common name guldaudi) in March,17,2010 when they were in ful bloom.somehow i was not able to upload the pictures at that time. Now i am planning to raise them in my backyard(small place in pots). It comes in different variety and colours. It needs sun. Our University (CCSHAU) shows of these flowers are organized.
see the photographs i grabbed in my phone camera...not up-to-the mark
sorry for the poor reflections...
Images Video: Chrysanthemum (Guldaudi) Flowers Photographs: Technorati Tags: Chrysanthemum (Guldaudi) Flowers Photographs
i got this video for beautiful photos to compansate and for eye candy..
Happy Day!
Thursday, October 20, 2011
Monday, October 17, 2011
remembering village, inspiration
यह उन दिनों की बात है जब मैं छठी कक्षा में पढ़ती थी मुझे आगरा में मिड सैशन में किसी स्कुल में दाखिला नहीं मिला तब मेरे पिताजी ने मुझे और मेरी छोटी बहन को गाँव में छोड़ा गाँव में पांचवी कक्षा तक स्कूल था अतः मुझे तोशाम के मिडिल स्कुल में दाखिला दिलवा दिया गया। गाँव में रहते मैं अपने आस-पास की लड़कियों से जो स्कूल नहीं जाती थी कुछ न कुछ सीखती रहती थी. उन्हीं दिनों आक के डोडे तोड़ कर उस में से कपास निकाल कर उन्हें चरखे पर कात लिया जाता था
और उस सूत को रंग कर गलीचे बनाये जाते थे। छुट्टियों में मैं भी मेरी हम उम्र बुआ के साथ आक के दौड़े खेतों की मेंड़ों के किनारों और बणी में से तोड़ कर लाई और मेरी दादी ने उन्हें काता आक के डोडों की रुई को कातना बहुत मुश्किल होता था मैंने भी कातने की कोशिश की और काफी काता भी. डोडों में से फाये उड़-उड़ जाते थे और नाक में भी चढ़ जाते थे समय मुँह पर ढाठा/ कपड़े का नकाब बांन्धना पड़ता था। खैर मैंने भी एक छोटा सा गलीचा आक के डोडों से बनाया परन्तु वह ज्यादा टिकाऊ नहीं था उसके रेशे बल नहीं सहन क्र सकते और बल खुल कर उधड़ जाते थे। फिर उनका रिवाज जाता रहा। परन्तु हैरान करने वाली बात यह है कि वह गलीचे हरियाणा के हर कोने में बनाये गए थे जैसा कि इस बारे में आज भी मैं हरियाणा के विभिन्न हिस्सों की औरतों से पूछ लेती हूँ।
यह है हमारे घर का तुलसी का पौधा जो अनायास ही उग आया मैं घर के सामने वाले पार्क से कुछ मिटटी गमलों में भरने के लिए लाई थी वह मिटटी कुछ दिन पहले पार्क में हुए सत्संग के लिए पूजा की बेदी हेतु लाकर बेदी बनाई गई थी वही तुलसी के पौधों से कुछ बीज शायद उसमें गिर गए होंगे और वह हमारे गमले में मेरे द्वारा लगाए पौधे के साथ उग आई। मैंने काफी दिनों बाद दूध वाले से पूछा कि भैया यह पौधा क्या है तब उसने बताया कि यह तुलसी का पौधा है।
मैंने इससे पहले तुलसी के बहुत से पौधे नर्सरी से खरीद कर लगाए परन्तु एक भी नहीं चला
my inspiration today
Here
xoxo
Wednesday, October 12, 2011
my daughter's writtings,confessions!!!
बड़े दिनों से मैं अपने ब्लॉग पर नहीं आ सकी.
कारण?
कंप्यूटर पर काम करने की एक दिक्कत है कि खराब होने पर इसकी दवा स्वँय नहीं की जा सकती. और एमरजेंसी में उसे डॉक्टर के यहाँ दाखिल करवाना पड़ता है और मेरे पास भी कोई चारा नहीं था. मैंने अपने कंप्यूटर को उसके इलाज के लिए हॉस्पिटल में जमा करवा दिया और फिर मेरे घर को सँवारने का सिलसिला जो शुरू हुआ कि में उसे भूल ही गई बस सीमेंट, गारा, बजरी, पेंट ...धूल....कंकड़, भयानक शोर.....और मिस्त्री, प्लम्बर, पेंटर बस उनकी तो बात ही मत पूछो एक बार घर में घुस गए तो बस ....घर से निकलने का नाम ही नहीं लेते........
बहरहाल मेरा कंप्यूटर भी घर आ चुका है और मैंने अपने घर की पुताई भी इसी शनिवार को करवा कर इस काम से निजात पा ली है. शायद कुछ छूट-पुट काम रह गया है. वह हमारे "हेंडिमैन" के हाथों करवा लूँगी.
आज कुछ जो मेरी बेटी ने लिखा.....कुछ 2-3 वर्ष पहले जब सोनिया लड़की केलीफोर्निया में अपनी पढ़ाई के दौरान सहायता के लिए हमारे यहाँ आई थी उसके बारे में है. सोनिया अमेरिका में रहती है और जब वह जापान में अँगरेजी पढाती थी, उसने कैलिफोर्निया से पत्रकारिता में कोर्स करने की ठानी. जब वह जापान से अमेरिका जा रही थी तो उसने अँगरेजी अखबार में मेरी भानजी द्वारा शोध किया लेख पढ़ा, जिसमें हरियाणा में महिलाओं के घटते लिंगानुपात का जिक्र था तब उसने अपने पत्रकारिता के एक प्रोजक्ट में इस विषय पर काम करने की ठानी और उसने समय आने पर मेरी भानजी को खोज निकाला और हमसे पूछ-ताछ की हमने उसे बखूबी वेल्कम किया और उसने अपना काम बखूबी दक्षता से निभा लिया. सोरखी गांव जाकर केरल से ब्याह कर लाईं गई लड़कियों से पूछ-ताछ की और केरल उनके घर जाकर भी अपनी लघु फ़िल्म का कुछ हिस्सा शूट किया.
बेटी को किसी बात पर उसकी अपने काम की जिजीविषा की बात की याद आ गई साथ ही अमेरिका में पढाई का स्तर भी पता चला क्योंकि उसे उसी काम की त्रुटियों (गाईड द्वारा निकली गई)को दूर करने के लिए दोबारा भारत उसी हरियाणा के गांव आना पड़ा और उसने अखबार में इस बारे में लिखा जो नीचे दिया जा रहा है.
अगली पोस्ट में उसकी फ़िल्म भी अटैच करूँगी.
I want to share some pics of park while walking in the evening
ladies are reciting devotional songs in the evening .....this is a routine work for them. |
शुभ दिवस!!
Subscribe to:
Posts (Atom)