Monday, October 17, 2011

remembering village, inspiration


यह उन दिनों की बात है जब मैं छठी कक्षा में पढ़ती थी मुझे आगरा में मिड सैशन में किसी स्कुल में दाखिला नहीं मिला तब मेरे पिताजी ने मुझे और मेरी छोटी बहन को गाँव में छोड़ा गाँव में पांचवी कक्षा तक स्कूल  था अतः मुझे तोशाम के मिडिल स्कुल में दाखिला  दिलवा दिया गया।  गाँव में रहते मैं अपने आस-पास की लड़कियों से जो स्कूल   नहीं जाती थी कुछ न कुछ सीखती रहती थी. उन्हीं दिनों आक के डोडे तोड़ कर  उस में से कपास निकाल कर  उन्हें चरखे पर कात  लिया जाता था 


और उस सूत को रंग कर गलीचे बनाये जाते थे। छुट्टियों में मैं भी मेरी हम उम्र बुआ के साथ आक के दौड़े खेतों की मेंड़ों के किनारों और बणी में से तोड़ कर  लाई और मेरी दादी ने उन्हें काता आक के डोडों की रुई को कातना बहुत मुश्किल होता था मैंने भी कातने की कोशिश की और काफी काता  भी. डोडों में से फाये उड़-उड़ जाते थे और नाक में भी चढ़ जाते थे समय मुँह  पर ढाठा/ कपड़े का नकाब बांन्धना   पड़ता था। खैर मैंने भी एक छोटा सा गलीचा आक के डोडों से बनाया परन्तु वह ज्यादा टिकाऊ नहीं था उसके रेशे  बल नहीं सहन क्र सकते और बल खुल कर उधड़ जाते थे।  फिर उनका रिवाज जाता रहा।  परन्तु हैरान करने वाली बात यह है कि वह गलीचे हरियाणा के हर कोने में बनाये गए थे जैसा कि इस बारे में आज भी मैं हरियाणा के विभिन्न हिस्सों की औरतों से पूछ लेती हूँ। 


यह है हमारे घर का तुलसी का पौधा जो अनायास ही उग आया मैं घर के सामने वाले पार्क से कुछ मिटटी गमलों में भरने के लिए लाई थी वह  मिटटी कुछ दिन पहले पार्क में हुए सत्संग के लिए पूजा की बेदी हेतु लाकर बेदी बनाई गई थी वही तुलसी के पौधों से कुछ बीज शायद उसमें गिर गए होंगे और वह  हमारे गमले में मेरे द्वारा  लगाए पौधे के साथ उग आई।  मैंने काफी दिनों बाद दूध वाले से पूछा कि भैया यह पौधा क्या है तब उसने बताया कि यह तुलसी का पौधा है।  
मैंने इससे पहले तुलसी के बहुत से पौधे नर्सरी से खरीद कर लगाए परन्तु एक भी नहीं  चला  


यह नैट से ली गई आक के पौधे की जड़ है इसे गणपति बताया जाता है 




my inspiration today


Here

xoxo

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