भारतीय
संस्कृति, मूल्यों की रक्षा करना हिंदी पत्रकारिता की सीरत है। हिंदी पत्रकारिता अपने शुरूआती समय से ही स्वतंत्रता के महान लक्ष्य को समर्पित रही। स्वतंत्रता संग्राम के लिए जनमानस को तैयार करने में हिंदी पत्रकारिता का महत्वपूर्ण योगदान था। लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे लोगों ने स्वतंत्रता की देवी की आराधना के लिए पत्रकारिता को माध्यम बनाया। आजादी के पश्चात हिंदी पत्रकारिता के सामने अपनी दिशा को एक बार फिर से निर्धारित करने की चुनौती थी। आजादी की नई सुबह देखने के बाद देश में उत्साह और उम्मीदों का दौर था। पर यह तय करना बाकी था कि देश को किस दिशा में ले जाना है। भारत ने जिन गांधीवादी सिद्धांतों को अपनाकर आजादी की जंग जीती थी, आजादी के बाद वे सिद्धांत कुछ पीछे छूटते प्रतीत हो रहे थे। गांधी के सपनों का भारत कैसा हो ? राष्ट्र निर्माण की उनकी कल्पना क्या थी, इसी बात को आम आदमी के समक्ष बेहतर ढंग से रखने के लिए गांधी जी के आदर्शों के तहत ही 2 अक्टूबर, 1950 को गांधी जयंती के दिन साप्ताहिक हिंदुस्तान की शुरूआत हुई थी। साप्ताहिक हिंदुस्तान का जन्म आजादी के बाद की हिंदी पत्रकारिता के लिए एक विरल घटना थी। इसका पहला अंक 1 से 7 अक्टूबर का था, जिसका नाम ‘बापू अंक‘ था। साप्ताहिक हिंदुस्तान नाम से पत्र निकालने की कल्पना सन 1936 में हिंदुस्तान टाइम्स संस्थान के तत्कालीन मैनेजिंग डायरेक्टर पारसनाथ सिंह ने की थी, लेकिन वह अपनी इस कल्पना को साकार नही कर सके। इस परिकल्पना को मूर्तरूप प्रदान किया गांधी जी के पुत्र देवदास गांधी ने, जब उन्होंने हिंदुस्तान टाइम्स के मैनेजिंग डायरेक्टर की जिम्मेदारी संभाली। इस प्रकार का पत्र निकालने की आकांक्षा देवदास गांधी के मन में आजादी मिलने के बाद से ही थी। प्रथम अंक से ही महत्वूपर्ण भूमिका में रहे बांके बिहारी भटनागर के अनुसार-
‘‘सन 1950 के मध्य में उन्होंने अपनी इच्छा को संकल्प का रूप दिया और दैनिक हिंदुस्तान के संपादक मुकुट बिहारी वर्मा को बुलाकर पत्र की योजना तैयार करने को कहा। आजादी के बाद का भारत संभावनाओं की ओर निहार रहा था और संपूर्ण वातावरण ही आशापूर्ण था, इन आशाओं को सन्मार्ग दिखाने के लिए ही साप्ताहिक हिंदुस्तान की नींव रखी गई थी। विस्मृत होते गांधी के आदर्शों को अपनाने की बात भी थी। साप्ताहिक हिंदुस्तान किस प्रकार गांधी जी के आदर्शों के तहत पत्रकारिता के क्षितिज में उदित हुआ था, इसका उदाहरण उसके पहले अंक में गांधी जी के चित्र के साथ पृष्ठ दो पर ‘शाश्वत नियम‘ शीर्षक से प्रकाशित यह उद्धरण वाक्य थे-
‘‘सत्य ही असत्य को, प्रेम ही क्रोध को, आत्मकष्ट ही हिंसा को शांत करता है। यह शाश्वत नियम संतों के लिए ही नहीं सबके लिए हैं। इसका पालन करने वाले लोग थोडे़ भले ही हों, किंतु पृथ्वी के रसनद में समाज को संगठित वे ही रखते हैं न कि ज्ञान और सत्य के विरूद्ध आचरण करने वाले।‘‘
पहले अंक में ही जैनेन्द्र कुमार का लेख भी ‘हम कहां और क्यों‘ शीर्षक से छपा था। गांधी जी के विस्मत होते आदर्शों के प्रति अपनी व्यथा जाहिर करते हुए जैनेन्द्र ने लिखा था-
‘‘गांधीजी के जन्मदिन पर हम विस्मय कर सकते हैं कि इस थोड़े से काल में कि जब गांधीजी शरीरतः हमारे बीच नहीं रहे, हम कहां से कहां आ गए हैं। ऐसा तो हमें मालूम नहीं होता कि हमने गांधी जी को छोड़ दिया है। उनको हम मानते हैं। उनकी नीति को मानते हैं। भरसक उस पर चलने की कोशिश भी करते हैं, लेकिन देखते हैं कि नतीजा पहले जैसा नहीं आता है। तब उत्साह था, अब निराशा है। तब जो अपने को होमने चलते थे, वे ही अब भोगने में बढ़ रहे हैं।‘‘
साप्ताहिक हिंदुस्तान की स्थापना जिस दौर में हुई, उस वक्त सरकार की आलोचना की बजाय संभावनाओं की बात अधिक होती थी। इसका कारण शायद यह भी था कि उस वक्त जो राष्ट्र का नेतृत्व कर रहे थे, वे नेता भारत के निर्माण का सपना बुनने वाले भी थे, मात्र शासक नहीं थे। साप्ताहिक हिंदुस्तान की शुरूआत के वर्षों में प्रकाशित राष्ट्रीय नव निर्माण विशेषांकों को इस संदर्भ में देखा जा सकता है। उस दौर में संपादक की भूमिका महत्वपूर्ण होती थी और मालिकों की भूमिका संसाधन उपलब्ध कराने तक ही सीमित थी। बाजार का दबाव कम होने के कारण पत्रकारीय मूल्यों से समझौता करने की तो कोई बात ही नहीं थी। बाजार का दबाव कम होने के कारण प्रतिस्पर्धा भी नहीं थी और प्रतिस्पर्धा की स्थिति थी भी तो बेहतर सामग्री उपलब्ध कराने को लेकर थी। उस दौर की पत्रकारिता में एक विशेषता यह भी थी कि पत्रकारिता और साहित्य में अधिक दूरी नहीं थी। साहित्य के लोग ही प्रायः पत्रकारिता के क्षेत्र में भी सक्रिय थे और पत्र-पत्रिकाओं में भी साहित्यिक रचनाओं को प्रमुखता दी जाती थी। साप्ताहिक हिंदुस्तान में भी साहित्य को प्रमुखता से स्थान दिया जाता था। राष्ट्र के सरोकार ही साप्ताहिक हिंदुस्तान की मुखर आवाज थे। यह समझने के लिए 5 अक्टूबर, 1952 के संपादकीय का अंश दृष्टव्य है-
‘पश्चिम की चकाचैंध से अभी भी हम मुक्त नहीं हुए हैं और वहां दिखने वाली प्रगति एवं सफलता मानों उसके अनुसरण की बरबस प्रेरणा कर रही है। रचनात्मक कार्य जिन्हें गांधीजी के समय हमने जाना, उसकी ओर आज मानो हमारी प्रवृत्ति कम है, मौखिक राजनीति और यंत्रीकरण हमको अधिक आकृष्ट कर रहे हैं। चरखा, खादी और ग्रामोद्योग इसीलिए पनपते हुए नहीं मालूम पड़ते। कषि के क्षेत्र में भी यंत्रीय प्रयोग बढ़ रहे हैं। यद्यपि खाद्य समस्या और जीवन निर्वाह की समस्या फिर भी कठिन ही बनी हुई है‘‘
इस पत्र की नींव रखने वाले देवदास गांधी थे, परंतु उन्होंने खुद को इसके संपादन दायित्वों से मुक्त रखा। इसका प्रथम संपादक होने का गौरव मुकुट बिहारी वर्मा को प्राप्त हुआ। जो उस समय दैनिक हिंदुस्तान के भी संपादक थे। मुकुट बिहारी वर्मा का कार्यकाल पत्र की स्थापना से लेकर 16 अगस्त, 1953 तक रहा। इसके बाद 23 अगस्त, 1953 को बांके बिहारी भटनागर ने संपादन की जिम्मेदारी संभाली और वह साप्ताहिक हिंदुस्तान के लंबे समय तक संपादक रहे, 16 अक्टूबर, 1966 को वह अपने दायित्व से अलग हो गए। उनके बाद संपादक के रूप में दायित्व संभालने वाले रामानंद दोषी लगभग एक वर्ष तक इस पत्र के संपादक रहे। इसके बाद का दौर साप्ताहिक हिंदुस्तान का स्वर्णिम दौर था, जब 3 दिसंबर, 1967 को मनोहरश्याम जोशी ने संपादन की जिम्मेदारी संभाली। मनोहरश्याम जोशी के संपादन काल में साप्ताहिक हिंदुस्तान ने पत्रकारिता जगत में शीर्ष मानदंड स्थापित किए। मनोहर श्याम जोशी जितने उत्कृष्ट पत्रकार थे, उतने ही सिद्धहस्त साहित्यकार भी थे। कहा यह भी जाता है कि मनोहरश्याम जोशी से पहले और उनके बाद साप्ताहिक हिंदुस्तान के इतिहास में उनकी प्रतिभा के समकक्ष का कोई संपादक नहीं आया। लगभग 15 वर्षों तक संपादन की जिम्मेदारी संभालने के बाद 24 अक्टूबर, 1982 को मनोहरश्याम जोशी ने संपादन के दायित्व से स्वयं को मुक्त कर लिया।
उनके बाद शीला झुनझुनवाला और राजेंद्र अवस्थी ने संपादन की जिम्मेदारी संभाली, लेकिन इनका कार्यकाल संक्षिप्त ही रहा। इसके बाद 27 मार्च 1988 से अंतिम अंक तक मृणाल पांडे ने साप्ताहिक हिंदुस्तान का संपादन किया। अपने अंतिम अंक तक साप्ताहिक हिंदुस्तान अपने घोषित मूल्यों के प्रति अडिग रहा। लेकिन देश में उदारवाद की लहर चलने के बाद सभी पत्र एवं पत्रिकाओं की प्रकृति व्यावसायिक होती गई। इस दौर में आदर्शों की आधारशिला के बजाय पत्रकारिता ने बाजार के सहारे खड़े रहने का प्रयत्न किया। अखबार अब जनजागरण के लिए नहीं मुनाफे के लिए भी निकाले जाने लगे थे। किंतु, साप्ताहिक हिंदुस्तान बाजार के अनुसार स्वयं को ढाल न सका, यही कारण था कि साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसे वैचारिक पत्र को बाजार का आधार नहीं मिला। अंततः तमाम उतार-चढ़ावों के बाद दिसंबर 1992 को हिंदुस्तान का प्रकाशन स्थगित कर दिया गया। लंबे समय तक इस पत्र में अपना योगदान देने वाले पत्रकारों-संपादकों के विचारों की पड़ताल करने के बाद यह कहा जा सकता है कि इसके बंद होने के पीछे कोई एक कारण नहीं था। वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक हिंदुस्तान से जुड़े रहे हिमांशु जोशी के अनुसार-
‘असल में मनोहरश्याम जोशी के बाद से हिंदुस्तान का ग्राफ नीचे की ओर जाने लगा था। उनके बाद उस प्रतिभा का कोई व्यक्ति नहीं आया। इसके अलावा साप्ताहिक हिंदुस्तान कुछ राजनीतिक दांवपेंच में भी फंस गया था। हिंदुस्तान टाइम्स के लिए साप्ताहिक हिंदुस्तान को घाटे पर चलाना भी कोई कठिन नहीं था, पर दुर्भाग्य रहा कि कुछ ऐसे लोगों के बीच में फंस गया जिन्होंने उसे बंद करना ही श्रेयस्कर समझा। ऐसा नहीं था कि पाठक समाप्त हो गए थे, या संपादक इतने गए गुजरे थे, जो चला ही नहीं पा रहे थे।‘
वहीं आलोक मेहता के अनुसार-
‘धीरे-धीरे चीजें बदलीं, संपादक बदले तो गांधी से तो निश्चित रूप से हटे, नेहरू से भी हटे, पर बाद में साप्ताहिक हिंदुस्तान की दिशा न गांधी वाली रही न नेहरू वाली रही। मतलब, बिल्कुल गड्ड-मड्ड सा हो जाना और उसके बाद दिशाहीनता की स्थिति, आखिर यह पतन की ओर तो ले ही जाएगा। मैं ऐसा मानता हूं कि मनोहरश्याम जोशी के बाद दिशाहीनता आई और उसकी प्रसार संख्या गिरी। विज्ञापन तो पहले ही कम आते थे, बाद में और कम हो गए। बाद में पूरे संस्थान में इस बात पर जोर रहा कि जो कुछ चल सकता है, उसी को चलाया जाए, अधिक क्यों चलाया जाए! इस कारण भी साप्ताहिक हिंदुस्तान पतन की ओर बढा।‘
दिसंबर
1992 में साप्ताहिक हिंदुस्तान का प्रकाशन स्थगित कर दिया गया। लेकिन अपने 42 वर्ष के कार्यकाल में साप्ताहिक हिंदुस्तान ने हिंदी पत्रकारिता को अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। हिंदी पत्रकारिता के सफर का एक महत्वपूर्ण पड़ाव साप्ताहिक हिंदुस्तान भी था।
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