जबसे मैंने कताई और बुनाई
सीखी है यह हमेशा से मेरे तनाव को कम करने का साधन रहा है। मुझे धागे
की एक सुंदर गेंद से कुछ बनाने के लिए अपने हाथों का उपयोग करने का जादू पसंद है।
मैं छह साल की उम्र तक शहरों में रही और जब तक मैं अपनी दादीजी के घर
में अपनी दादी सहित काटने और रंगाई करने वालियों के रूप में अपने परिवार की
महिलाओं से नहीं मिली, तब तक मैंने धागे को हल्के में लिया। वे सभी अद्भुत
कताई औररंगाई करने वाली थीं। तब मैंने उस प्रक्रिया को समझा जिसे
देखने से पहले धागे को गुजरना पड़ता है और इसमें केवल जादू जुड़ा है।
फिर मेरी बारी थी और मैंने भी सूत बनाया। और धीरे-धीरे
मैंने थोड़ा करना भी सीखा है, भले ही वह मम्मी या दादी की निगरानी में
ही क्यों न हो … और मुझे पूरी तरह से अलग तरह की कला बनाने के लिए
धागे के कैनवास का उपयोग करने में मज़ा आया। मेरी आंखें रंगों के लिए
खुल गई हैं और मुझे रंगों को मिलाना आ गया रंगों को उभरना आ गया और मैं
इस कला में पारंगत हो गई.मुझे क्रोशिया,सलाइयां,चरखा सब चलाना आता है परन्तु दुःख
यह है कि दूसरों की क्या कहें घर में मेरी बेटी सहित किसी लड़की को यह सबनहीं
आता। नई जनरेशन इसको अहमियत नहीं देती।
बहार हाल मेरे बारे में कुछ और। ....
मेरी दादी जो सूत कातती थी उससे गाँव के जुलाहे से खद्दर बनवाती थी जिससे मेरे दादा और चचा के कुर्ते बनाये जाते थे उसी खददर से रजाइयों के गिलाफ बनाये जाते थे। मेरी दादी अपने बालों को गूंथने के लिए नाल घर पर स्वयं रंगती थी। मेरी चाहसियां सूत कात कर उसे रंग कर दरियाँ और गलीचे बनाती थी और काते हुए धागे को रंग कर उसकी तीन कड़ियाँ लेकर क्रोशिये से बैग बनाती थी. फिर मेरी बारी थी मैंने भी काटना सीखा और धीरे-धीरे उसमें पारंगत हो गई
मेरी दादी और मां
के जमाने में
हरियाणा में लड़कियों को दहेज में चरखा और पीढ़ा जरूर दिया जाता था. मेरी
नानी मेरी मम्मी की शादी से पहले स्वर्गवास हो गई थी मेरी नानी का
चरखा और पीढ़ा मेरी मम्मी को
दहेज में दिया गया था। वह चरखा(spinning
wheel ) और पीढ़ा (A
hand-knit, tiny stool - smaller version of the a desi 'Charpai' )मुझ तक अभी नहीं
पहुंचा है मम्मी के स्वर्गवास के बाद वह हमारे बंद मेरा कातने का शौक,
मुझे कातना बहुत अच्छा लगता है, चाहे वर्षों के अंतराल मैं ही सही पर मेरा कातना
जारी रहता है। मैंने 1966 मैं अपने गाँव में कातना सीखा था। हमारी गाँव की हवेली
में तीन परीवार रहते थे, मेरे दादाजी के बड़े भाई की बेटी, मेरी बुआ मुझसे कुछ दो
वर्ष बड़ी थी और वह मेरी अच्छी सहेली भी थी, हम साथ बैठ कर रातों को कातते थे। मेरे
पिता आसाम पोस्टेड थे और हमें अपने गाँव रहना पड़ा था. दिन में मैं स्कूल जाती
थी और मेरी सहेली बुआ खेत में ...कभी- कभी ज़ब मेरी छुट्टी होती तब हम रात भर
कातते थे .....
"सरोतिया" और
"धूपिया"
रात भर कातने को सरोतिया कहा जाता है। कई सारी औरतें रात भर दिए की रौशनी में बैठ
कर कातती हैं कातते समय गीत गाती जाती हैं। फ़िर हलवा बनाया और खाया जाता है।
सरोतिये में कई बार शर्त लगाई जाती की पाव भर सूत कौन पहले कातेगा अथवा सुबह
चार बजे तक कौन सबसे अधिक कातेगा.
इसी तरह जब खेत खलिहान के
काम निबट जाते थे तो गाँव की महिलाएं दिन में ख़ास कर सर्दियों में धुप में
इकट्ठी हो कर कर कातती थी जिसे धूपिया
मैंने ज़ब-ज़ब शहर में काता
ज़ब मैं 1975 में बी एस सी के पहले वर्ष में थी तब
मैंने बहुत कताई की थी। हमारे गाँव की तरह जैसे की रजाई हर दो वर्ष में भरवाई जाती
थी और तीसरे वर्ष उसे कात लिया जाता था ज़ब तक उसकी रुई नर्म बनी रहती थी....मैंने
भी अपनी रजाई और गद्दे की रुई को कात लिया जो कि लगभग ६ किलो रुई जरुर रही होगी और
फ़िर उस सूत की मैंने १९७७ में दरी बनाई। मैं कोलेज से आकर एक घंटा कातने जरुर बैठती
थी इससे मेरा कन्सन्ट्रेशन भी बढ़ता था और सब थकावट दूर होजाती थी आंनंद की अनुभूति
अलग से होती थी॥
दरी बनाने की और फ़िर से कातने का दौर आगे कभी...
अब तो मैं
कपड़ों की कतरनों से भी धागे बनाना सिख गई हूँ
यह देखिये ढेरे पर मैं मम्मी की पुरानी कमीज से रस्सी जैसे धागे बना रही हूँ
पहले मैंने इन रस्सियों से मैट बनाये फिर जब मैट उधड़ गई तब उन्हें इस ड्रम पर लपेट दिया
इन रस्सियों को मैंने इस ड्रम पर लपेटा है देखिए यह ड्रम कितना सुंदर लग रहा है!
शब्बा खैर!
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