१. रिश्ता जो पतंग बन गया
एक रिश्ता जिसके पायदान पर कदम रखने से ही तस्वीर अपना पुराना अक्स खोने लगी
निश्चित समय के बाद वह रिश्ता डसने लगा बार- बार
हर बार जैसे मैं अजगर के मुँह से घायल हो कर बाहर निकली
बदलाव से इंकार करते हुये मै बदली
ठीक वैसे ही जैसे
पानी में जमा धूल-मिटटी तलछटी में जमा हो जाती है
मेरा भीतर भी पाक-साफ हो कर
मुझे मरियम की तरह बेधडक हो कर
ज़ीना एक बार तो सीख ही गयी
इंसान बनने की पकिया में
किसी रिश्ते ने शैतान बनने पर मजबूर किया
तो किसी ने देवत्व की राह दिखाई
सिफ आदमी ही रिश्ते बना सकता है
यह धारणा पक्की होने से पहले ही धूमिल हो गई
जब पेड-पौधों, हवा-पानी से भी बेनाम सा रिश्ता सहजता से बना
इसी कम में सबसे नज़दीक का रिश्ते को सबसे दूर जाते हुए भी देखा
एक रिश्ता जो हमने बडे मनोयोग से बनाया
उनमें नमक कुछ ज्यादा था
जब वो रिश्ता टूटा
तो दिल में ही नहीं, आँखों तक में
नमक उतर आया
जिन रिश्तों में खाली जगह थी
झाडियाँ बेशुमार उग आयी
बारिश के मोसम मै खरपतवारें बढती गयी
और हमारे नजदीक आने की संभावना
कम होती गई
एक वक्त था जब मैं रिश्ते जोड सकती थी
आज सिर्फ तोड सकती हूँ
सावधानी वश कुछ पुराने रिश्ते
दीमक और सीलन से बचने के लिये धूप में सुखाने के लिये रख दिये
और कुछ को दुनिया की टेढी नज़र से बचाने के लिये ऐयर टाईट डिब्बे में कस के बंद कर दिये
रिश्तो की इसे उहापोह मै
एक अनोखे रिश्ते की डोर मेरे हाथ से छूट कर पंतग की तरह आसमान में जा अटकी
उसी को तलाशती मै आज तक आकाश मै गोते लगा रही हूँ
२. रंगों की तयशुदा परिभाषा के विरूद्ध
पीले रंग को खुशी की प्रतिध्वनी के रूप में सुना था
पर कदम- कदम पर जीवन का अवसाद
पीले रंग का सहारा लेकर ही आँखों में उतारा
किसी के बारहा याद के पीलेपन ने आत्मा तक को
स्याह कर दिया
हर पुरानी चीज़ जो खुशी का वायस बन गयी थी
वह ही जब समय के साथ कदमताल करती हुई पीली पडने लगी तो
यह फलसफा भी हाथ से छूट गया
तब लगा की हर चीज़ को जो एक टैग लगा कर कोने में रख दिया है
जो बिना किसी विशेषण के अधुरी मान ली जाती है
अपने ही कालिमा से लिप्त अधुरा इंसान भी सामने की किसी अधुरी वस्तु के सामने आकर पलट आता है
नीले रंग की कहानी भी मुझे देर तक खूब छला
मुझे अपने साथ लेकर
यह एक बार
पानी की ओर मुडा
दूसरी बार आकाश की ओर
और तीसरी बार मुझे अपने भीतर समटने की तैयारी में साँस लेता हुआ
दिखाई दिया
लाल रंग अपनी पवित्रता को साथ लेकर
इतिहास की लालिमा की और लपका फिर वापिस लौटा
लहुलुहान हो कर
कुछ ही दूरी पर खडा केसरी रंग प्रतयांचा पर चढा
काँपा, कभी बेहिचक हो
माथे पर बिंदु सा सिमट गया
यह ठीक है कि भूरे रंग से मुझे कभी शिकायत नहीं रही
यही मेरे सबसे नजदीक की
मिटटी में गुंधा हुआ है
अनुभव की रोशनाई में,
मैंने इसे धीमी आँच में देर तक पकाया
यह भूरा रंग कुछ- कुछ मेरी भूख से वाबस्ता रखता है शायद
तभी जैसी ही मेरे भीतर की हाँठी रीतने लगती है उसी समय मैं
दुनियादारी से बंधन ठीले कर के इसे पकाने में जुट जाती हुँ।
शब्बा खैर!
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