Thursday, October 21, 2010

कतरनों का उपयोग

भाग १...
मैं ज़ब छठी कक्षा में थी तब से अपने कपड़े खुद सिलती हूँ।
पढाई कर ज़ब में सर्विस में आई तब मैं  अपने परिवार के बच्चों के डिजाइनदार कपड़े सिल कर मेग्जिन में छपने के लिए भेजने लगी....
बहरहाल बचे कपड़ों क़ी बात करें ...
मेरे पास सिलाई के बाद बचे कपड़ों के बैग-पर-बैग भर गये थे मेरी भांजी को मैंने पाला था और वह अपनी १२ व़ी  की कक्षा कर छुटियों पर थी ...मैंने उसे इन कपड़ों के ५-५ इंच के टुकड़े काट -काट कर दिए  एक रंग के दो टुकड़े इकट्ठे कर उनके बीच में १/४ इंच छोटा टुकड़ा पतले मलमल का लगाकर उन टुकड़ों को मोड़ कर ऊपर से कच्ची सिलाई करनी सिखाई ......सोचा  बाद में इनका कुछ बनायेंगे...क्या?
अभी तक भविष्य के गर्भ में ही है ...

भतीजी ने अपना काम बखूबी निभाया इससे उसकी एकाग्रता बढ़ने में भी सहायता मिली और शायद कुछ मनोरंजन भी हुआ.....यह लगभग ११-१२ वर्ष पहले की बात है....अब वह एम पी टी कर के एक फिजियोथेरेपिस्ट है

देखिये नीचे चित्र में आजकल इनकी फ़िर सुध ली गई है और यह इस अवस्था तक पहुंच गये हैं ...
मम्मी आजकल मेरे पास रह रही हैं ...बावजी के देहांत के बाद से ही वह मेरे पास हैं...
मम्मी ने इन टुकड़ों के चारों  तरफ काज-स्टिच कर दी है.
और मैं इनके चारों ओर क्रोसिये से ट्रेबल स्टिच से दो-दो चक्कर बुन रही हूँ...

ऊपर टुकड़े काज-स्टिच के साथ ओर कुछ क्रोसिये के साथ दिखाए गये हैं....
देखिये ऊपर .....अमेरिका से मेरी मामी द्वारा लाये गये खुबसूरत सूट के कपड़े का टुकड़ा ...
यह टुकड़े यदि फैंक दिए जाते तो इन्हें सड़ने में शायद वर्षो लगते ओर माँ धरती पर अतिरिक्त बोझ भी पड़ता इन्हें सड़ाने का, वातावरण दूषित होता वह अलग...

कपड़ों के यह टुकड़े अपने साथ बहुत सी पुरानी यादें लिए हुए हैं.....

आगे इन तैयार टुकड़ों का क्या बनेगा देखेंगे....

शब्बाखैर!

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