पार्क में यह पेड़ (झाड़) देख्
बचपन के वो दिन, ना जाने कैसे, मुझे आज याद आ गए? उन दिनों हम अपने गाँव खरकड़ी माखवान में रह रहे थे. समणी काटने के बाद खेत उजाड़ हो चले थे मैं कोई 10-11 वर्ष की रही होंगी फिर स्कूल से छुट्टी होंने पर हम पास के टिब्बों के खेतों में निकाल जाते और डोलों पर लगी ढेरों झाड़ बेरियों पर से छोटे-छोटे बेर तोड़ कर लाते और उन्हें मिटटी की कोरी कुल्हडियों (टेरा-कोटा के बर्तन ) में भर कर रख लेते थे।उन लाला-लाल खट्टे-मीठे बेरों को गोलिये बेर कहते थे वे बड़े स्वादिष्ट होते थे. बालू रेत के टिब्बे घर के इतनी पास भी नहीं थे ! पर टिब्बे ओर छोटी-छोटी पहाड़ीयों पर उगे बेरी के झाड़ मानो हमें बुलाते थे !
Kharkari-Makhwan |
उन पर लगी लाल पीली बेरियां हमें सपने में भी मानो आवाज़ लगातीं ! रास्ते भर हम तरह तरह की बातें करते रहते ! “बेरी खाने से दिमाग़ तेज़ हो जाता है ! मेरे दादा ने कहा है कि अगर बेरी खाओगे तो पढ़ाई में तुम्हारे खूब अच्छे नंबर आयेंगे !” गोया बेरी ना हो गई अमर फल हो गई ! पर सच्ची बात तो ये थी कि बिना पैसे के ये फल अमर फल से कम नहीं थे ! ना कोई डाँटने वाला, ना कोई भगाने वाला ! बेरी तोड़ते तोड़ते कितने ही काँटे पैरों में घुस जाते ! कितने ही हाथों को बींध देते ! पर हाय रे बेरी का लालच !
वो कतई कम नहीं होता ! अब कहाँ वह् बेरियाँ अयार फिर इन्हें कैट कर बाद बना ली जाती ओर होली के दिनों में बच्चे यह बेरी के ढिक्खर फाड़-फाड़ कर गांव के फलसे में बड़ी सारी होली बना देते अब कहाँ बाद! ओर कहाँ ढिक्खर???????
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