Friday, December 12, 2025

जुलाई, 1997: कुरड़ी का वह ख़ौफ़नाक पल और एक सीख

बात जुलाई, १९९७ की है। उन दिनों मेरे पिताजी की पोस्टिंग असम के जोरहाट में थी। हम बच्चे—मैं, मेरी बहन और मेरा भाई—अपनी माँ के साथ गर्मी की छुट्टियाँ बिताने अपने गाँव में दादा-दादी के पास आए हुए थे। गाँव का जीवन शहर से बहुत अलग था। सुबह का नज़ारा कुछ ऐसा था कि लगभग 3:3०-4:०० बजे के बीच ही नींद खुल जाती। हमारे गाँव में उन दिनों बिजली की व्यवस्था नहीं थी, और घरों में शौचालय भी नहीं होते थे। शौच के लिए हमें गाँव से बाहर 'कुरड़ी' (हरियाणवी में वह खाली या खुली जगह जहाँ गाँव का कूड़ा-कचरा और अपशिष्ट जमा होता है, और ऐतिहासिक रूप से शौच के लिए उपयोग की जाती थी) जाना पड़ता था। एक भी मैं रोज़ की तरह घने अँधेरे में शौच जाने के लिए कुरड़ी की ओर अकेली ही निकली। उस दिन अंधेरा ज्यादा ही घना था, पर मुझे अजीब-सा डर कभी नहीं लगा। मैं स्वभाव से बहुत निडर थी। अक्सर मैं अकेले ही कभी टॉर्च लेकर या बिना किसी सहारे के उस सुनसान रास्ते पर चल पड़ती। उस उषाकाल की खामोशी और मेरा अकेलापन, आज भी एक स्पष्ट याद की तरह मेरे ज़हन में ताज़ा है।
जैसे ही मैं कुरड़ी के नज़दीक पहुँची, तभी अचानक मैंने देखा कि सामने से हमारे गाँव की एक महिला आ रही थीं—दिलीप की बहू, जो रिश्ते में मेरी दादी लगती थीं और मानसिक रूप से थोड़ी अस्वस्थ थीं। उनके सिर पर कूड़े का खाली तसला (तसला) रखा हुआ था। वह शायद अपने घर का कूड़ा-कचरा फेंक कर वापस लौट रही थीं। उन्हें देखकर मैं एक तरफ हटने लगी, लेकिन वह भी जान-बूझकर मेरी ही तरफ सरकने लगीं। उनकी यह हरकत देखकर मैं बुरी तरह सहम गई। एक पल के लिए तो मैं बुरी तरह सहम गई। मैं डरकर चीखने ही वाली थी कि तभी पास के एक घर से दिए की हल्की रौशनी दिखी। मैं जान बचाने के लिए उस रौशनी की ओर भागी और सीधे उस घर की चौखट पर चढ़ गई, ताकि दरवाज़ा खटखटा सकूँ। मेरी घबराहट देखकर वह महिला (दिलीप की बहू) भी रुक गईं। शायद वह समझ गईं थीं कि अब मैं किसी को बुला लूँगी। वह अचानक हँस पड़ीं और बोलीं, "बेटी, डर गई क्या? जंगल (गाँव में शौच को जंगल भी कहते हैं ) हो के आई है... (हाँ बेटी, भोत बख्त उठया करै के, बखत उठ कीं पढ़या करै के बेटी) बहुत जल्दी उठती है क्या ... जल्दी उठकर पढ़ा करती है क्या बेटी?" मैं डर के मारे दबी ज़बान में बस "हाँ दादी" ही कह पाई। मेरी तो उस समय साँस अटकी हुई थी। मैंने झटपट कुरड़ी पर अपना काम निपटाया और सीधे घर की तरफ़ भागी। घर पहुँचते ही मैंने अपनी दादी माँ को सारी बात बताई। उन्हें मेरी निडरता पर चिंता हुई। उस दिन के बाद, काफ़ी दिनों तक सुबह के उस पहर में मेरी दादी तब तक मेरे साथ कुरड़ी पर जाने लगीं, जब तक मेरा डर पूरी तरह चला नहीं गया। उस घटना ने मुझे सिखाया कि निडर होना अच्छी बात है, लेकिन सूनसान रास्तों पर सावधानी बरतना भी उतना ही ज़रूरी है my inspiration today Multicolor Granny Square Tutorial // Not For The Faint Hearted

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