Tuesday, October 1, 2019

Rainy season, महात्मा गांधी जी के 150 वें जन्म-जयंती पर..

Farewell my beautiful rainy season and hello October ! 
Rain, I miss you already but we can't keep you forever, can we ? 

महात्मा गांधी जी के 150 वें जन्म-जयंती पर... ....

ग्रामीण महिलाओं के फुर्सत के ऋणों की गतिविधियों पर शोध करते समय(वर्ष 2007)  मैंने पाया कि चरखे पर सूत कातना भी उन्हें फुरसत  के पलों में सुकून देता है.  मेरा वह  रिसर्च  पेपर पोलैंड  से " World Leisure Journal" में छपा।  पेपर के परिचय में मैंने सूत कातने के विषय पर गांधी जी के विचारों का हवाला दिया वह पेपर इस पोस्ट में संलग्न कर  रही हूं।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान गांधी ने देश देशवासियों  को प्रत्येक दिन  सूत  कातने के लिए प्रोत्साहित किया। और फिर चरखा - और खादी  ही - भारतीय स्वतंत्रता  आंदोलन का प्रतीक बन गया।

चरखा चलाते समय कातने वाला/वाली अपने- आप को भूल सिर्फ धागे की तरफ़ ध्यान लगाये रहता है कि वह टूटे ना, और यही ध्यान भी है। मन सब चिंताओं से मुक्त, आनंदित, सात्विक अन्तः करण, और प्रार्थना का समय भी हो सकता है वह। इस प्रक्रिया के दौरान मन में किसी किस्म की कोई चिंता नहीं।  फिर क्यों मिल -बैठ कर कुछ सूत कात लिया जाये ........  





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मेरा कातने का शौक,
मुझे कातना बहुत अच्छा लगता है, चाहे वर्षों के अंतराल मैं ही सही पर मेरा कातना जारी रहता है।   कताई करना नृत्य की तरह है। हाथ, आंखें, और मन का आनंद एक लय में रहते हैं ताकि सूत बिना किसी रुकावट के काता  जा सके. मैंने 1966 मैं अपने गाँव में कातना सीखा था। हमारी गांव की हवेली में तीन परीवार रहते थे, मेरे दादाजी के बड़े भाई की बेटी, मेरी बुआ मुझसे कुछ दो वर्ष बड़ी थी और वह मेरी अच्छी सहेली भी थी, हम साथ बैठ कर रातों को कातते थे। मेरे पिता आसाम पोस्टेड थे और हमें अपने गाँव रहना पड़ा था. दिन में मैं स्कूल जाती थी और मेरी सहेली बुआ खेत में ...कभी- कभी ज़ब मेरी छुट्टी होती तब हम रात भर कातते थे .....
"सरोतिया "और "धूपिया "
रात भर कातने को सरोतिया कहा जाता है,और दिन भर कातने को धूपिया कहा जाता है

बहुत सी लड़कियां/औरतें रात भर /दिन भर बैठ कर कातती हैं, कातते समय गीत गाती जाती हैं। फ़िर हलवा बनाया और खाया जाता है। सरोतिये में कई बार शर्त लगाई जाती है कि पाव  भर सूत कौन पहले कातेगा अथवा सुबह चार बजे तक कौन सबसे अधिक कातेगा.


अब हरियाणा के गांवों में सूत कातना जैसे बंद सा हो गया है, आजकल औरतें सूत कातना अपनी तौहीन समझती हैं। एक समय था ज़ब लड़कियों को दहेज में चरखा और पीढा दिया जाता था।

मैंने ज़ब-ज़ब शहर में काता

ज़ब मैं 1975 में बी एस सी के पहले वर्ष में थी तब मैंने बहुत कताई की थी। हमारे  गांव  की तरह जैसे की रजाई हर दो वर्ष में भरवाई जाती थी और तीसरे वर्ष उसे कात लिया जाता था ज़ब तक उसकी रुई नर्म बनी रहती थी....मैंने भी अपनी रजाई और गद्दे की रुई को कात लिया जो कि लगभग 6  किलो रुई जरुर रही होगी और फ़िर उस सूत की मैंने1977 में दरी बनाई। मैं कोलेज से आकर एक घंटा कातने और जब अड्डे पर दरी चढ़ाई तब एक घंटा दरी  बनाने जरुर बैठती थी, इससे मेरा कन्सन्ट्रेशन भी बढ़ता था और सब थकावट दूर हो जाती थी आंनंद की अनुभूति अलग से होती थी.

दरी बनाने की और फ़िर से कातने का दौर आगे कभी...

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