Monday, October 28, 2019

BG, my daughter's interview by rekha sethi

श्रीभगवानुवाच |
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ |
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् || 3||
BG 3.3:The Blessed Lord said: O sinless one, the two paths leading to enlightenment were previously explained by me: the path of knowledge, for those inclined toward contemplation, and the path of work for those inclined toward action.


 interview by 
Rekha Sethi Associate professor at




·         आपके निकट स्त्री-कविता का आशय क्या है ?
-स्त्री-कविता, स्त्री के संपूर्ण व्यक्तित्व की वह रचनात्मक उपस्थिति है, जिसकी आभा में एक चेतना संपन्न स्त्री को पितृसत्तात्मक संरचना में अपने लिए अलहदा स्पेस बनाते हुए देखा जा सकता हैं. इस स्पेस में वह सदियों से ठस सामाजिक रुढियों को अपने से अलग करके, अपने भीतर-बाहर की अनुभूतियों को मुखरता से रख सकती है. स्त्री-कविता ने इसी अलहदा स्पेस में रहते हुए अपने मौलिक अनुभवों के कहन के लिए विशिष्ट मुहावरे गढ़े हैं और कविता में अपनी विशिष्ट शैली निर्मित की है. स्त्री-कविता एक रचनात्मक औज़ार है, जिसके साथ स्त्री उस इलाके के प्रवेश करती है जहाँ का नक्शा उसकी बौद्धिक संरचना की व्यापकता और गहनतम स्तर पर महसूस की जाने वाली संवेदनशील अनुभूतियों को मिलकर बना है.
·         स्त्री होना आपकी कविता को कैसे प्रभावित करता है ? (केवल स्त्री रचनाकारों के लिए)
-स्त्री होना, यानी मानसिक रूप से कई स्तरों पर निरंतर सक्रिय रहना. आज की स्त्री के पास एक बड़ी जिम्मेदारी खुद को सिद्ध करके दिखाने की भी है. समाज उसके स्त्री होने की बार-बार याद दिलाता है इस याद में वे दारुण स्मृतियाँ उसके भीतर अनायास ही प्रवेश कर जाती हैं जिसका संबंध उसकी माँ, दादी समेत नजदीकी स्त्रियों के अनुभवों से हैं. अपने जीवन के अनुभवों के साथ अपनी पूर्ववर्ती स्त्रियों को अपनी कविता में लाना उस वक़्त जरूरी हो जाता है जब समाज के दोयम व्यवहार को महसूस करती हैं. इस तरह एक स्त्री चाह कर भी सिर्फ़ इंसान के तौर पर रचने की कोशिश करने में कभी सफल नहीं हो पाती. क्योंकि समाज ने उसे वह सुविधा कभी प्रदान नहीं की कि वह सिर्फ़ इंसान होकर सोच सके.
जब स्त्री अपने रचनात्मक स्पेस में आती है जहाँ उसे अपने ख्यालों, स्वप्नों और उम्मीदों को रचने की सुविधा है वहां स्वतः ही एक स्त्री होने की दबी टीस बाहर आती है. स्त्री-कविता उसके स्त्री होने का ही पुख्ता और लिखित प्रमाण है.
·         क्या यह आवश्यक है कि स्त्री-कविता की अपनी अलग पहचान हो ?
-आज के इस आइडेंटिटी को प्रमुखता देने वाले दौर में एक स्त्री अपने सृजन में जिन भंगिमाओं को लेकर आती है उसकी अलग बानगी को रचनात्मक स्तर पर दर्ज़ करने के लिए स्त्री –कविता की पहचान होना जरुरी लगता है, स्त्री-कविता के  जरिए ही स्त्री मुक्ति को लेकर चले आ रहे विश्वव्यापी संघर्षो को भी मजबूती मिलती आई है और स्त्री-कविता में बहती चली आ रही स्त्री चेतना की प्रबल महत्ता अलग से रेखांकित होती है. स्त्री के पर्सनल को पॉलिटिकल कहने वाली मुहीम को स्त्री-कविता ने खूब समझा और इसी विधा में उसे मजबूती मिली. स्त्री-कविता ने यह दर्शा दिया कि उसके जीवन- संघर्षों को अब जायदा समय तक राजदार नहीं बने रहने देना है, स्त्री की सृजन प्रक्रिया और संघर्षों का इतिहास दर्ज किया जाना है और एक बौद्धिक स्त्री को सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर सक्रिय होना है. अपनी बात खुद कहनी है उसे किसी मिडीऐटर की जरुरत नहीं है. यही कारण है कि किसी भी स्त्री के लेखन के शुरुआत से लेकर गंभीर रचनाकार बनने के सफ़र में उसके व्यक्तित्व के विकास को  पाठक सही से रेखांकित कर सकते हैं. स्त्री-कविता न केवल स्त्री के रोज़मर्रा के संघर्ष और उसके निजत्व की बात करती है वह उसके जागरूक होने के रिकॉर्ड को दर्ज़ भी करती है.
स्त्री के व्यक्तिव का मैग्नेटिक फ़ील्ड व्यापक होता है, समय के साथ एक चेतना संपन्न स्त्री की सोच-समझ में काफी कुछ समाहित होता चलता है. एक इंसान की तरह सोचते समझते हुए भी उसे कभी न कभी स्त्री की तरह सोचने पर विवश होना पड़ता है क्योंकि नकारात्मक अनुभव सिर्फ़ स्त्री होने के कारण ही उसके करीब आ सके है.
स्त्री-कविता, स्त्री के भीतर का वह प्रवाहमय वेग है जिसमें हर तरह के नदी, नाले, झरने समा कर एक हो जाते हैं फिर भी अपनी व्यक्तिगत पहचान कभी खोते नहीं.
·         स्त्री-कविता जैसा अभिधान क्या केवल पाश्चात्य सन्दर्भों से अनुप्रेरित है या भारतीय-दृष्टि भी उसके निर्माण का आधार है ?
-कभी मीराबाई ने अपनी निजता की बात की थी और अपनी पसंद को सार्वजानिक किया था. हर दौर में ऐसे ही किसी स्त्री ने  समाज के बंधन को तोड़ने का जोखिम पाला था. मानव के सर्वाधिक निजी अनुभूति को लेकर सजग स्त्रियाँ, कविता में अपने अधिकारों की मांग करने लगी थी. भारत के दक्षिण में अंडाल, अक्कमहादेवी आदि ने भी अपने जीवन के सरोकारों को मजबूती से रखा फिर बहुत बाद में पश्चिम में स्त्री अधिकारों की बात उठी और संसार भर की स्त्रियों की चेतना ने इस बात को स्वीकारा की अब उनके बोलने का समय आ गया है. स्त्री-कविता ने अपनी शब्दावली गढ़ी और वे अपने साथ नए मुहावरे लेकर आई वे मुहावरे और शब्दावली उनके रोज़मर्रा के जीवन से ही निकले थे, ये स्त्रियाँ अपने जीये हुए को ही लिखती जाती थी. पश्चिम के प्रेरणा लेकर भी हर स्त्री अपने लोकेल में उतरती हैं भारतीय संदर्भों में स्त्री-कविता का आस्वाद थोडा बादल जाता है पर उनके अधिकारों की मांगे तो विश्वव्यापी हैं.
आज के समय में जब एक बड़ी तादाद में स्त्री-कविता लिखी जा रही है तब इसे केवल पाश्चात्य सन्दर्भों से अनुप्रेरित नहीं कहा जा सकता. आधुनिकतावाद की आंधी ने काफी कुछ बदल दिया है और जो एक तरह का खीचड़ी कल्चर बना है उसमे पश्चिम को पश्चिम और पूर्व को पूर्व नहीं रहने दिया है कहीं वे ग्लोबल बन जाता है तो कहीं देसी.

·         आपकी दृष्टि में स्त्री-कविता के मूल मुद्दे क्या हैं ?
-स्त्री कविता में स्त्री के अस्तित्व के महत्व के वे सारे मुद्दे शामिल हैं, जिन्हें हमारी पितृसत्तात्मक संरचना के चलते आज तक किनारे किया गया है. आधुनिक समय में स्त्री के सामने आने वाली सारी चुनौतियां भी इसमें शामिल हो गयी हैं. लेकिन एक सामाजिक इकाई के तौर पर स्त्री की अपनी सशक्त पहचान सबसे बड़ा मुद्दा है. मान अधिकार, शिक्षा, नौकरी मान वेतन आदि. लेकिन मुझे लगता है अपने लिए जिस एकांत की मांग एक रचनात्मक स्त्री कहती आई है वही स्त्री-कविता में भी परिलक्षित होता दीखता है.
आधुनिक समय में स्त्री- कविता में रचनाकारों का यथार्थबोध और उनका अनुभवलोक उतरोत्तर अधिक विस्तृत होता गया है लेकिन काफी पहले से ही स्त्री-कविता के मूल मुद्दे जो रहे हैं वही घूम-फिर कर कविता में आ ही जाते हैं क्योंकि उनका समुचित समाधान नहीं हो पाया है.

·         क्या आपको कभी लगा कि ‘स्त्री-विमर्श’ स्त्री-कविता की संभावनाएँ तलाशने की अपेक्षा उसके लिए एक सीमा बन गया क्योंकि यह जिस तरह कविता को एक विशेष दृष्टिबोध से देखने का आग्रह करता है उससे कविता के अन्य पक्ष चर्चा के केंद्र में आ ही नहीं पाते ?
-जब भी हम किसी विशेष वर्ग को लेकर नई तरह की समीक्षा की मांग करते हैं तो उसमे कई तरह के पूर्वाग्रह अनायास ही शामिल हो जाते हैं इसके लिए नए तरह के आलोचकीय टूल्स इस्तेमाल में लाने होंगे  यही लगता है. जैसे-जैसे स्त्री-कविता अपनी धार तेज़ करती जाएगी वैसे वैसे उसे देखने का नजरिया भी बदलेगा लेकिन इसमें अभी समय लगेगा. हमारे देश में जहाँ स्त्री-विमर्श की परिभाषा को लेकर लोगों में सही धारणा नहीं है वहां अभी स्त्री-कविता को एक विशेष दृष्टिबोध से देखने का आग्रह करना पूरी तरह बेमानी है लेकिन प्रयास तो चलते ही रहेंगे और किसी रोज़ स्त्री-कविता का विशिष्ट डिसिप्लिन होगा.
·         समकालीन कविता की परंपरा में, अपने युग के अन्य कवियों की तुलना में स्त्री रचनाकारों की कविता का मूल्याङ्कन आप कैसे करेंगी ?
-स्त्री कविता में दर्ज़ सरोकारों से ही स्त्री लेखन का मूल्याङ्कन हो सकेगा, एक स्त्री अपने परिवेश को कैसे देखती है अपने संबंधों पर किस तरह रियेक्ट करती है, स्त्री कविता अपनी चेतना को किस तरह एक रास्ते पर लाकर उसे ठोक-पीट रही है और इस ठोक-पीट से समाज के दूसरे पक्ष की ठस धारणाएं टूट रही हैं यह देखा जा सकता है. लेकिन यह भी लगता है कि अभी कठोर मूल्यांकन से बचना चाहिए.

·         क्या आपको लगता है कि हिंदी आलोचना ने स्त्री-रचनाकारों को साहित्य की मुख्यधारा में उचित स्थान नहीं दिया ?
-हाँ यह बिलकुल सही है कि स्त्री-रचनाकारों को दरकिनार किया गया. महादेवी जैसी प्रबुद्ध रचनाकार को सिर्फ़ छायावादी कवयित्री कह कर एक अलग खाके में  रख दिया गया था. आज कुछ हद तक स्थिति सकारात्मक दिशा में ग है पर इस तरफ काफी ध्यान देने की आवश्यकता है.

·         सामाजिक परिवर्तन की दृष्टि से आने वाले समय में स्त्री कविता क्या भूमिका निभाएगी ?
-जब स्त्री-कविता अपने सरोकारों के प्रति गंभीर होगी और अपने हक की बात पुरज़ोर तरीके से रखेगी तब बड़े विमर्शों में स्त्री अपनी पूरी रचनात्मक प्रतिभा और मानवीय सरोकारों के साथ  शामिल होगी और स्त्री- कविता की रचनात्मकता एक एजेंडे की तरह सामने आएगी,  उसके स्त्री के वे सभी मसले शामिल होंगे जिससे लड़ने और निज़ाद पाने के लिए उसने अपने जीवन की ढेर सारी उर्ज़ा खत्म की है.

·         स्त्री कविता की सबसे बड़ी उपलब्धि क्या हो सकती है? क्या हमारा समाज ‘जेंडर सेंसेटिव’ होने की जगह कभी ‘जेंडर न्यूट्रल’ हो सकेगा यानी आप स्त्री हैं या पुरुष इससे कोई अंतर न आये और आपकी पहचान व्यक्ति रूप में हो ?
-लेखन के क्षेत्र में रचनात्मक स्तर पर ‘स्त्री-कविता’ निश्चित रूप से एक ठोस स्पेस क्रिएट करती है, जिसकी आवश्यकता आज के जागरूक समय में स्त्री की अपनी सृजनात्मक उपस्थिति के लिए आवश्यक जान पड़ती है. जिस तरह की हमारी समाजिक संरचना बनी हुई है उसमें समाज के जेंडर न्यूट्रल होने की संभावना तो की जा सकती है, मगर इस तरह की सोच विकसित होने की प्रक्रिया काफी क्षीण है, उसके पीछे हमारे पितृसत्तात्मक समाज की वह संरचना है जिसके तार ढीले होने में समय लगेगा. बरसों से जो बेड़ियाँ स्त्री के पैरों में बंधी हुई हैं और काफी लंबे संघर्ष के बाद ही स्त्री उन्हें ढीला करने में सफल हो सकी है. लगभग वही स्थिति पुरषों के साथ भी है उन्हें स्त्री को एक व्यक्ति के रूप में पहचानने के लिए एक गंभीर सोशल ट्रेनिंग की आवश्यकता है और इसकी जिम्मेदारी स्त्री और पुरुष दोनों की सामान रूप से है. तभी इस तरह की स्थिति में पहुंचा जा सकेगा जो आदर्श होगी जबकि यही स्थिति एक सामान्य स्थिति होनी चाहिए दुनिया में सांझे विस्तार के लिए.
 XOXO



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