Vipin Choudhary |
लोकतंत्र का मान रखते हुये
कंबल से एक
आँख बाहर
निकाल कर
हम बाशिंदों ने
इन सफेद पाजामाधारी
मदारियों के
जमघट का
तमाशा खूब
देखा
सावधानी से छोटे-छोटे कदमों से ये नट
उछल-कूद
का अद्भुद
तमाशा दिखाते
इनके मजेदार तमाशे
का लुत्फ
उठा कर
घर की
राह पकड़ते...
यह सिलसिला पूरे
पाँच साल
तक चलता.
इसी बीच कुछ
कमाल के
जादूगरों से
हमारा साक्षात्कार
हुआ
बचपन में पढ़े
मुहावरों को
सिद्ध होने
का गुर
हमने इन्हीं
से सिखा
इन जादूगरों को
टेढी ऊँगली
से घी
निकलना आता
था
पलक झपकते ही
मेज़ के
नीचे से
अदला-बदली
करना, इनके
बाएँ हाथ
का खेल
था
पल भर में
ये लोग
आँखे फेरना
जानते थे
इनकी झोली में
ढेरों रंग
थे
हर बार नऐ
रंग की
चमड़ी ओढे
हुऐ मिलते
ये जादूगर
भीतर से लीपा-पोती कर
पाक-साफ
हो बाहर
खुले आँगन
में निकल
आते
चेहरा आम- आदमी
का चस्पा
कर..
खास बनने की
फिराक में
लगे रहते.
आँखों के काम
कानों से करने
की कोशिश
करते
झुठ को सच
की चाशनी
में डूबो कर चहकते
आज़ादी को धोते,
बिछाते, निचोड़
कर उसके
चारों कोनों
को दाँतों
में दबा
ऊँची तान ले
सो जाते
हम उनके जगने
का इंतज़ार
करते भारी
आँखों से
ताकते
एक टाँग पर
खड़े रहते
धीरे-धीरे फिर
हम इनके
राजदार हो
चले
और न चाहते
हूए भी
कसूरवार बन
गये
इस बीच हमारे
कई यार-
दोस्त इनकी
बनाई योज़नाओं
के तले
ढहे, दबे,
और कुचले
गये.
इधर हम अपने
हिडिम्बा प्रयासों
में ही
उलझे रहे
आखिरी सल्तनत की
कसम खाते
हुऐ हमने
यह स्वीकार
किया
कि हमें भी
लालच इसी
लाल कुर्सी
का था
पर यह सब
हमने लोकतंत्र
का मान
रखते हुए
किया
हमें गुनाहगार हरगिज़
न समझा
जाए.
साबूत इंसान बनने की प्रक्रिया से गुज़रते हुए
इंसानी खोल से
बाहर भटकते
हम
साँप की तरह
मौसम-बेमौसम
अपनी केंचुली
उतार देते
हैं
कभी मेमने की
तरह हल्की
आहट से
डरते, दुबकते
भाग खड़े
होते हैं
तो कभी शेर
की तरह
माँद में
घुस कर
अपने दांतों
और नाखूनों
को तेज
करने में
जुट जाते
हैं.
चुस्त अवसरों पर
हमेशा कुत्ते की तरह दुम
हिलाई है
हमने
लंगूर की तरह
एक मौके
से दुसरे
मौके पर
लपकने की
पुरानी आदत
रही है
हमारी...
कोयल की तरह
अपनी जिम्मेवारी
दूसरों के
मत्थे मढ़ना
हमें खूब
आता है
उल्लू जैसी हमारी
आँखें हर
किसी पर
गड़ी रहती
हैं
ज़रा सी तारीफ़
से, और
झूठी शान
से हमारी
गर्दन
ज़िर्राफ की तरह ऊँची
हो जाती
शाही की तरह
अपनी चमड़ी पर नुकीली
कीलें लिये लम्बी सैर के
लिये निकल
जाते हैं हम
सियार की तरह
मक्कारी का
मकड़जाल बुनने
में हमारा
वक्त कटता
है
पल में नष्ट
होने वाली
चीज़ों के
पीछे गिलहरी
की तरह
लपकने वाली
प्रजाति है
हमारी.
प्रकृति ने हर
कदम पर
हमें खुब
मांजा
आज भी हम
प्रशिक्षण के दौर में हैं
अभी भी हमें
लुहार की
तरह ठोकना,
कुम्हार की तरह
गढ़ना पड़ता
है.
नदी के किनारे
हमारा लालन-
पालन हुआ
और हम नाशुक्रे
उसी नदी
को ओक
लगा कर
पी गए
हमारी प्यास लोमड़ी
की तरह
बेहद लम्बी
थी
निर्जीव चीज़ें भी
हमें लगातार
माँज़ती रही
पर जानवरों के
जो तौर-तरीके हमसें
चिपके हुए
हैं
उन्हें पूरी तरह
साफ होने
में अभी
देर है.
विकास के क्रम
में हमसे
जो चीज़ें
नहीं छुट
पायी हैं
उनकी स्पष्ट छाप
हमारे सपाट
मस्तक पर
सहज
ही देखी जा सकती हैं
ये चिन्ह जब
हमारे साथ
नहीं रहेंगे
तब शायद हम
साबूत इंसान बनने
के क्रम
में कुछ
और आगे
बढ़ सकेंगे.
जिल्लेसुभानी
तर्क के साथ
जीने वाले,
इक्कीसवीं सदी के
बच्चे को
जब यह कहते
हुए एक
तस्वीर दिखाई
जाती है...
देखो, ये हैं
शहंशाह बहादुरशाह
ज़फर
तो वह संदेह
भरी आँखों
से
एक बार तस्वीर
को देखता
है एक
बार हमें
उसका यह संदेह
देर तक
परेशान करने
वाला होता
है.
यकीनन बच्चा अच्छी
तरह से
जानता है
कि एक राजा
की तस्वीर
में कुछ
और नहीं
तो
सिर पर मुकुट
और राजसिंहासन
का सहारा
तो होगा
ही
उसी बच्चे को
लाल किले
के संग्रहालय
में रखा
बहादुरशाह का चोगा दिखाते हुये...
कुछ कहते-कहते
हम खुद
ही रूक
जाते हैं
उसकी आँखों के
संदेह से
दोबारा
गुजरने से हमें डर लगता
है
मगर जब हम
दरियागंज जाने
के लिये
बहादुरशाह ज़फर मार्ग से गुज़रते
हैं
तब वह बच्चा
अचानक से
कह उठता
है
बहादुशाह ज़फर, वही
तस्वीर वाले
बूढ़े
राजा
सच को यकीन
में बदलने
का काम
एक सड़क
करेगी
ऐसे उदाहरण विरले
ही होंगे
उस दिन पहली
बार सरकार
की पीठ
थपथपाने का
मन किया.
आगे चलकर जब
यही बच्चा
डार्विन का
सूत्र
"सरवाईवल आफ दा
फिटेस्ट" पढ़ेगा
तब खुद ही
जान जायेगा
कि बीमार
इंसान और
कमज़ोर घोड़े
को
रेस से बाहर
खदेड़ दिया
जाता है
और इतिहास का
पलड़ा
एक खास वर्ग
की तरफ
ही झुकता
आया है
तब तक वह
इस संसार
की कई
दूसरी चीजों
के साथ
सामंजस्य बिठाने की
उम्र में
आ चुका
होगा.
किसी आधे दिमाग
की सोच
भी यह
सहज ही
जान लेती
है कि
एक राजा की
याद को
महज़ एक-दो
फ्रेम में
कैद कर
देने का
षडयंत्र
छोटा नहीं होता.
जबकि एक शायर
राजा को
याद करते
हुये
आने वाली पीढ़ियों की आँखों के
सामने से
कई चित्र गुज़र
जाने चाहिये
थे
जिसमें से किसी
में वे
मोती मस्जिद
के पास
की चिमनी
पर कुछ
सोचते दिखायी
देते,
छज्जे की सीढ़ी से उतरते या
प्रवेश द्वार
से गुज़रते,
मदहोश गुंबद के
पास खड़े
हो दूर
क्षितिज में
ताकते,
बालकनी के झरोखों
से झाँकते
जफ़र
या कभी वे
ज़ीनत महल
के किले
की छत
पर पतंग
उड़ाते नज़र
आते
कभी सोचते, लिखते
और फिर
घुमावदार पलों
में खो
जाते.
जब समय तंग
हाथों में
चला जाता
है
स्वस्थ चीज़ों पर
जंग लगनी
शुरू हो
जाती है
और जब रंगून
की कोठरी
में बीमार
लाल चोगे में
लालबाई का
बेटा और
एक धीरोचित
फकीर
अपना दर्द कागज़
के पन्नों
पर उतारते
हैं
तो फरिश्ते के
पित्तर भी
शोक मनाने
लगते हैं.
उस वक़्त शायद
इतिहास को
अपने अंजाम तक
पहुँचाने वाले
नहीं जानते
होंगे
कि कल की कमान
उनके किसी
कारिंदे के
हाथों मे
नहीं होगी
उसी ज़ीनत महल
में आज
लौहारों के
हथौड़े बिना
थके आवाज़
करते हैं
फुलवालों की सैर
पर हज़ारों
जिंदगियाँ साँस लेती हैं
नाहरवाली हवेली को
पाकिस्तान से आकर बसे हुये
दो हिन्दु परिवारों
का शोर
किले को
आबाद करता
है
चाँदनी चौक का
एक बाशिंदा
गर्व से
यह बताते
हुए
नहीं थकता कि
हमारे पूर्वज
राजा साहब को
दीपावली के
अवसर पर
पूजन सामग्री पहुंचा
कर धन्य
हो गये
राग पहाड़ी में मेहंदी
हसन जब
गा उठते
हैं- “बात
करनी मुझे
मुश्किल कभी
ऐसी तो
न थी”
तो संवेदना की
सबसे महीन
नस हरकत
करने लगती
है
ठीक इसी वक्त
जिल्लेसुभानी
अपने लम्बे चोगे
में बिना
किसी आवाज़
के
हमारे करीब से
गुज़र जाते
हैं
हज़ारों शुभकामनाएं देते हुए
एक दरवेश की
तरह.
शहीद–ऐ-आज़म के नाम एक कविता
उस वक़्त भी
होंगे
तुम्हारी बेचैन करवटों
के बरक्स
चैन से सोने
वाले
आज भी बिलों
में कुलबुलाते
हैं
तुम्हारी जुनून मिजाज़ी को
"खून की गर्मी” कहने वाले.
तुमने भी तो
दुनिया को
बिना परखे
ही जान
लिया
होगा
जब
कई लंगोटिए यार
तुम्हारी उठा-पटक से
परेशान हो
कहीं दूर छिटक
गए होंगे.
तुम्हारी भीगी नसों
की गर्म
तासीर से
शीशमहलों में रहने
वालों की
दही जम जाया
करती होगी.
दिमागी नसों की
कुण्डी खोले
बिना ही
तुम
समझ गए होगे
कि
इन्सान- इन्सान में
ज़मीन आसमान
जितना असीम
फर्क भी हो
सकता
है
अपने चारों ओर बंधी बेड़ियों
के भार को
संभालते हुए
कोयले से जो
लिखा होगा
तुमने.
उसे पढ़
कईयों ने जानबूझ
कर अनजान
बन
अपनी गर्दन घुमा
ली
होगी.
कई ठूंठ बन
गए होंगे
और
कई बहरे, काने
और लंगड़े
बन
अपनी बेबसियों का
बखान करने
लगें होंगे.
परेशान आज भी
बहुत है
दुनिया,
ज़रा सा कुरेदने
पर
लहू के आंसूओं
की
खड़ी नदियाँ बहा
सकती है
पर क्रांति की
बात दूसरी-तीसरी है.
जनेऊ अब भी
खीज में
उतार दे
कोई
पर वह बात
नहीं बनती
जो मसीहाई की
गली की
ओर मुड़ती
हो.
’क्रांति’ बोल-वचन
का मीठा
और सूफियाना मुहावरा
बन
कईयों के सर
पर चढ़
आज भी बेलगाम
हो
भिनभिनाता है.
लहू में पंगे
शेरे-पंजाब की
दिलावरी को याद
करने के
लिए
पंजों के बल
खड़े होना
पड़ता है
पर
हमारी तो शुरुआ़त
ही लड़खड़ाने
से होती
है.
Have a Lovely Day!!!!
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