कृप्या मेजपोश की
सलवटों पर ध्यान न देवें
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बाग़ से वापिस आते
समय जब हांसी से होते हुए गुजरे तो दुनीचंद की
दूकान से पेड़े ख़रीदे ... उनकी दूकान पर दुनीचंद की पेड़ों की मशहूर दुकान लिखा
है.....
हांसी के पेड़ों की
पुराने व्यवसायी बलवंत मित्तल बताते हैं कि करीब सौ वर्ष पूर्व उनके दादा दुनीचंद
ने पेड़े बनाने का काम शुरू किया था। अब उनकी चौथी पीढ़ी इस काम में लगी है।
बचपन में नानू
खूब पेड़े लाया करते पांच किलो पेड़े बड़ी
सी डलिया में भरे होते उन पर लगा पिस्ता मं चुन-चुन खाती…..
चाय के साथ पेड़ों
का मज़ा ही कुछ और होता है....
पता नहीं इनका
मावा सफ़ेद कैसे रह पाता है घर में मावा
बनाओ तो वह भूरे रंग का हो जाता है...
शब्बा खैर !!!
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